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Friday, March 18, 2016

कहानी - अधकटी लाइनें

अधकटी लाइनें

खुली खिड़की, उससे झलकते सितारे, गुनगुनाती हवा के झोंके, खिड़की से सटी मेज, वही पसंदीदा डायरी और उसकी खास कलम...सब कुछ तो था पर न जाने क्यों निशा आज कुछ लिख नहीं पा रही थी | घंटों बैठी बस कुछ लिखती और उन्हें काटती रही | हारकर उसने डायरी बंद कर दी और खिड़की के दूसरी ओर सितारों की दुनिया में झाँकने लगी | बारह साल पहले दस जून की रात नौ बजे उसके फोन की घंटी बजी थी | फोन पापा ने उठाया था | फोन कटते ही उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था | मैं कुछ पूछती इससे पहले ही पापा ने बताया ‘बेटा , तुम्हे लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है |’ मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ | मुझे लगा पापा मजाक तो नहीं कर रहे | लेकिन उनके चेहरे पर फैली गर्व की लम्बी लकीरें बता रही थीं कि मैंने सच में पुरस्कार जीत लिया है |

बचपन से ही उसे कहानियां पढ़ने का बड़ा शौक था | बगल वाले शर्मा अंकल के घर से अख़बार उठा लाती और उसमें केवल कहानियां ही पढ़ती | बहुत पसंद आने पर उनकी कतरनें भी अपनी डायरी में चिपका लेती | पढ़ने का ये शौक कब लिखने में तब्दील हो गया वो खुद जान नहीं पाई | उसकी डायरी के रंगीन पन्ने छोटी बड़ी कहानियों से भरे पड़े थे | केवल बारह साल की थी निशा जब पहली बार उसकी एक छोटी से कहानी एक पत्रिका में छपी थी | उस दिन उसे भी बड़ी हैरानी हुई थी जब पापा ने उसे वो पत्रिका लाकर दी थी | हां, देते समय पापा की शर्त थी कि मुझे हर एक पन्ना पढ़ना होगा | लेकिन मैं सीधे अपने पसंदीदा कहानियों वाले पेज में पहुँच गयी थी | जैसे ही मैं आखिरी पन्ने पर पहुंची अनायास ही मुंह से निकला ‘अरे! ये शीर्षक तो मेरी कहानी का है | नहीं नहीं ये तो मेरी ही कहानी है और इसमें मेरा ही नाम भी लिखा है |’ ख़ुशी से नाच उठी थी मैं |

‘पापा, मम्मी देखिये ना मेरी कहानी छपी है |’ लेकिन लेकिन...ये कहानी छपी कैसे ? मैंने तो आज तक अपनी कोई कहानी कहीं भेजी ही नहीं | ‘मुबारक हो बेटा ! हमें तुम पर गर्व है |’ पापा मम्मी मेरी कमजोरी, चाकलेट वाला केक लिये सामने खड़े थे | ‘यानि आप दोनों को पहले से मालूम था |’ लेकिन पापा मैंने तो कभी कहानी भेजी ही नहीं |’ मुस्कुराती माँ बोली ‘बेटा , माफ़ करना | मैंने ही एक दिन तुम्हारी डायरी पढ़ी थी | लेकिन छपने को तो तुम्हारे पापा ने ही भेजी थीं कहानियां |’ ‘ओह ! मम्मी पापा आई लव यू |’  निशा मम्मी पापा दोनों के सीने में जा छिपी थी | इसके बाद उसकी लिखी कहानियां तमाम पत्र पत्रिकाओं में निरंतर छपने लगी थी | उसके कमरे की खिड़की, खिड़की से लगी मेज, डायरी और उसकी खास कलम उसकी जिन्दगी से गहरे जुड़ गये थे | रात के अँधेरे में जब टिमटिमाते तारे खिड़की से झांकते थे तब उसकी कलम अपने आप चलने लगती थी | उसका ज्यादातर समय इन्ही चीजों के साथ बीतता था |  

उसकी कलम यूँ ही चलती रही | कब वो एक उभरती कहानीकार से प्रतिष्ठित लेखिका बन गई उसे पता ही नहीं चला | माँ बाप की चिंता भी अब अपने उफान पर थी | उम्र बढ़ती जा रही थी | ‘ये सही समय है अब हमें निशा की शादी कर देनी चाहिये |’ ‘कर तो दें लकिन आपकी लेखिका की तमाम मांगों को पूरा करने वाला भी तो मिले |’ ‘तो इसमें गलत क्या है? उसकी भी तो कुछ इच्छाएं हैं | इतने सालों की मेहनत, उसका जूनून, उसकी इच्छाएं क्या शादी के बाद सब बेमानी हो जाएँगी?’ ‘नहीं, निशा के पापा, मैं सिर्फ ये कह रही हूँ कि असलियत तो शादी के बाद ही पता चलती है | कौन कैसा है ये हम पहले से नहीं बता सकते |’ ‘अब छोड़ो भी, जरा सकारात्मक सोचा करो, सब अच्छा होगा |’ ऐसे संवाद जब तब मेरे कमरे में आते रहते थे जो मन में कांटे की तरह चुभने लगते थे | ऐसा नहीं था कि मुझे शादी नहीं करनी थी | मैं केवल इतना चाहती थी कि जहाँ भी और जिससे भी मेरी शादी हो वो लोग मुझे समझे | मैं अपनी लेखनी जारी रख सकूं | मुझे भरोसा था कि मैं घर और लेखन दोनों को एक साथ निभा सकती हूँ |

आज अपने पसंदीदा समय पर बैठ अपनी नयी कहानी को मूर्त रूप देने में लगी निशा के कंधे पर किसी ने  हाथ रख हौले से दबाया | आज तक लिखते समय उसे किसी ने रोका टोका नहीं | निशा चौंक गयी थी | पीछे पलटी | ‘ओह ! मम्मी , आपने तो डरा ही दिया था |’ बेटा मुझे तुमसे कुछ जरुरी बात करनी है, कहते हुए माँ मेरे सामने बैठ गयी थीं |

आज सुबह से ही माँ किचेन में व्यस्त थी और पापा घर की साफ़ सफाई में जुटे थे | हालाँकि लड़के वाले दोपहर बाद आने वाले थे लेकिन पापा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे | ऐसा लग रहा था मानो आज ही मेरी शादी करा देंगे | मुझे कमरे में ही रहने को कहा गया था | तय समय पर वो लोग आ गये थे | मैं चाय लेकर गयी तो मेरी होने वाली सास ने मुझे अपने पास बिठा लिया था | होने वाले ससुर जी भी साहित्य प्रेमी निकले | मेरी कई कहानियां पढ़ रखी थी | बस तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे | हमें एक दुसरे को समझने का मौका भी दिया गया | ‘देखें तो आजकल लेखिका जी क्या लिख रही हैं?’ कमरे में घुसते ही प्रमोद ने पूंछ लिया था | जवाब में मैंने बिना कुछ बोले अपनी डायरी बढ़ा दी |

शादी के कुछ महीने बाद तक कुछ भी नहीं लिख पाई थी | हां, प्रमोद अक्सर पूछते रहते कि क्या लिख रही हो | जवाब में मैं मुस्कुरा देती और बात ख़त्म हो जाती | समय मिलता तो छोटी छोटी कहानियां लिख लेती | लेकिन ये मौका भी अब जाता रहा | अयान के आ जाने के बाद तो सारा दिन उसी में लगी रहती | लेकिन उसने किसी तरह एक कहानी लिख ली थी | ‘प्रमोद देखो न मैंने एक कहानी लिखी है | पढ़ के तो बताओ कैसी है |’ बेडरूम में उनके लेटते ही मेरा इतना कहना था कि प्रमोद भड़क उठे ‘दिमाग ख़राब है तुम्हारा ! दिन भर की भड़ भड़ से जरा सी फुर्सत मिलती है उसमे मैं तुम्हारी कहानियां पढूं? लिखने से फुर्सत मिले तो अयान का भी कुछ ख्याल रख लिया करो, दिन ब दिन जिद्दी होता जा रहा है | इतने साल हो गये अभी तक लिखने का भूत नहीं उतरा |’ सन्न रह गयी थी मैं | उसी वक्त मैंने अपनी डायरी और कलम को अपने बक्से में रख दिया था |

अयान के स्कूल में आज पेरेंट्स मीटिंग थी | प्रमोद काम के सिलसिले में बाहर थे इसलिए मुझे ही जाना पड़ा | ‘अरे, निशा जी आप ?’ आवाज की तरफ मुड़ के देखा ‘ओह. राजेश जी आप |’ ‘क्या निशा जी आप तो एकदम गायब ही हो गयीं |’ ‘हां, बस बच्चों में जरा व्यस्त हो गयी थीं |’ दोनों अपने अपने बच्चों के साथ यहाँ आये थे | ‘चलिये निशा जी मैं आपको घर तक छोड़ देता हूँ |’ मुझे मालूम था राजेश जी कभी मानेंगे नहीं इसलिए बिना प्रतिरोध किये मैं उनकी कार में बैठ गयी | कॉलेज के दिनों में भी मेरे लाख मना करने के बावजूद अक्सर मुझे घर छोड़ा करते थे राजेश | पिता जी को इससे कभी कोई शिकायत नहीं रही पर मेरी माँ को ये बात सख्त नापसंद थी |

‘तो निशा जी आगे ये रेड कलर वाला घर आपका है न?’ ‘हां, राजेश जी पर आपको...’ बात ख़त्म होती इससे पहले ही राजेश बंद होंठों से मुस्कुराने लगे | ‘अन्दर तो आईये |’ इंसानियत के नाते मुझे ये कहना जरुरी लगा | ‘हां क्यों नहीं | इसी बहाने कुछ बातें भी हो जाएँगी |’ शरारत भरी मुस्कान के साथ झट से राजेश ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया | ‘निशा कैसी रही मीटिंग ?’ घर के अन्दर घुसते ही प्रमोद ने सवाल दागा | ‘अरे, प्रमोद आप आ गये | इनसे मिलो ये हैं राजेश |’ ‘मैं इन्हें स्कूल के दिनों से जानता हूँ |’ राजेश ने अपना परिचय कुछ यूँ ही दिया था | ‘स्वागत है आपका हमारे घर में | लगता है हम दोनों की खूब जमेगी |’ प्रमोद ने भी खुले दिन से उनका स्वागत किया | मैं किचेन में चाय बनाने चली गई | राजेश खुले दिन वाला था उसने हमारी पूरी कहानी प्रमोद को सुना डाली | मेरे लेखन की तारीफ के तो पुल ही बांध डाले | मैं पूरी तन्मयता से राजेश को सुने जा रही थी | सालों बाद किसी ने मुझसे मेरे लेखन के बारे में बात की थी | अरसा गुजर गया किसी ने मेरी तारीफ़ में एक शब्द नहीं कहा | आज तो आसमान से बारिश ही हो रही थी और मैं इस बारिश में सराबोर हो जाना चाहती थी | प्रमोद कभी हँसते, कभी चुपचाप सुनते, कभी प्रश्नवाचक मुद्रा में मेरी आँखों में आंखे गड़ा देते | मैंने इस पर ध्यान देना कतई जरुरी नहीं समझा |

‘अच्छा निशा जी अब मैं चलता हूँ | उम्मीद है आपकी नयी कहानियां जल्दी ही पढ़ने को मिलेंगी |’ यह कह कर राजेश जी ने विदा ली थी | दरवाजा बंद कर जैसे ही अन्दर आयी लगा मानो तूफ़ान आ गया | थर्राता चेहरा...झल्लाती ऑंखें...आज पहली बार मुझे प्रमोद से डर लगा था | ‘क्यों आया था ये आदमी यहाँ ?’ गुर्राते हुए पूछा प्रमोद ने | ‘पेरेंट्स मीटिंग में मिले थे | घर तक छोड़ने आये थे | अब क्या चाय के लिये भी न पूछती?’ मैंने भी गुस्से में जवाब दिया | ‘शायद मेरे प्यार में ही कुछ कमी रह गयी!!!’ प्रमोद ने गुस्से में दीवाल पर हाथ पटकते हुए कहा था |  ‘नहीं, प्यार तो आपने मुझे बहुत दिया | लेकिन कभी मुझे, मेरी इच्छाओं को समझने का समय नहीं रहा | मैं क्या करना चाहती हूँ, क्या बनना चाहती हूँ, क्या पाना चाहती हूँ, ये जानने की कभी कोशिश ही नहीं की | और हां आप राजेश के बारे में जैसा सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है |’ मैंने अपने सवाल और सफाई एक साथ पेश की थी | उस रात काफी देर तक हम चीखते चिल्लाते रहे |

‘मैं अपने घर जा रही हूँ | खाना फ़्रिज में रख दिया है |’ इससे आगे न मैंने कुछ कहा था और न प्रमोद ने कुछ पूछा था | अयान को साथ ही ले आई थी | अचानक घर आने पर माँ ने तमाम सवाल पूछे थे | अयान की छुट्टी का बहाना कुछ हद ही कामयाब हो पाया था | आज पूरे सात दिन हो गये थे | प्रमोद ने न तो कोई फोन किया और न ही खुद मुझे लेने आये | मैं जानती थी वो जरूर आयेंगे | वो मुझसे दूर नहीं रह सकते | हमारे बीच आज तक जितने भी झगड़े हुए, हमेशा वो ही मुझे मनाते | कभी भी झगड़ा एक दिन से ज्यादा नहीं चला |

उस रात खाना खाने के बाद मैं सीधे अपने कमरे में चली आयी | चांदनी रात थी | अरसे से बंद खिड़की खोल दी थी | मेरी डायरी और कलम मेरे पापा ने दराज में संभाल के रखे थे | उसके हाथ खुद ब खुद दराज की ओर बढ़ गये | डायरी के पन्ने उलटते पलटते कब उसकी कलम चलने लगी उसे मालूम ही नहीं पड़ा | ‘लेखिका जी क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ?’ बड़ी देर से ख्यालों में खोयी निशा को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया | प्रमोद ही थे | मैं जानबूझकर कुछ नहीं बोली | ‘निशा मुझे माफ़ कर दो | मैं गलत था | सच कह रही थी तुम | मैंने कभी भी तुम्हारी इच्छाओं को नहीं समझा | मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ | तुम्हारी इच्छाओं का गला घोंटा है मैंने |’ उनके इस भोलेपन ने मुझे एक पल में पिघला दिया | खुद को रोक न सकी और उनकी बाँहों में समां गयी | उनकी आँखों से झरते आंसुओं से मेरा माथा गीला हो गया था | मेरा माथा चूम कर बोले ‘जरा मैं भी तो देखूं हमारी लेखिका जी आज क्या लिख रही हैं ?’ मैंने चुपचाप डायरी प्रमोद की ओर बढ़ा दी थी | कटी अधकटी लाइनों वाला पन्ना खिड़की से आ रही ताज़ी हवा के झोंकों से लहरा रहा था |


Story by: Nitendra Verma
                                                                              Date: March 13, 2016 Sunday

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6 comments:

  1. So ...Finally...Happy...Ending..!!

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  2. Oh!!!Madhuri ma'am...I am surprised to see u here..thanx a lot for ur visit n comment..

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  3. Oh!!!Madhuri ma'am...I am surprised to see u here..thanx a lot for ur visit n comment..

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