Menu bar

New Releasing soon...my new novel कंपू 007..a topper's tale कंपू 007...a topper's tale
New इस ब्लॉग के पोस्ट को मीडिया में देखने के लिये MORE menu के Milestone पर क्लिक करें..

Sunday, September 10, 2017

कहानी - अधूरी कहानी



Nitendra,speaks,hindi kahaniyan,hindi stories,poetry,poem,kawita,gazal,articles,success stories
नितेन्द्र वर्मा 
नितेन्द्र वर्मा की लिखी नयी कहानी "अधूरी कहानी"...पढ़िये....पसन्द आये तो कमेंट व शेयर जरूर करें...






अधूरी कहानी
शा
म होते ही रोज की तरह खिड़की खुल चुकी थी | खिड़की से सटी बैठी निवेदिता ने ठीक सामने के हरे भरे पार्क पर नजरें टिका दीं | घूमते, टहलते, बेफ़िक्री में गप्पे लड़ाते लोग...कहीं युवाओं की मस्ती...तो कहीं महिलाओं की मण्डली...कहीं सत्तर पार कर चुके युवा बुजुर्गों का लाफ़्टर क्लब...तो कहीं योग में जुटे लोग...अपने कोने की अलग ही दुनिया में झूलों में मगन छोटे छोटे बच्चे...रोज के ये द्रश्य निवेदिता के मन में एक नई स्फूर्ति भर देते | निवेदिता की दिनचर्या का ये अहम हिस्सा था | उसने इन दृश्यों को अपनी आँखों में भर लिया | वह एक नयी उमंग और ऊर्जा से भर उठी |

निवेदिता ने नये उपन्यास “गहरा दलदल” का दूसरा अध्याय खोल लिया | परसों ही उसने ऑनलाइन इसे मंगाया था | वैसे लेखक का नाम तो उसने कभी नहीं सुना लेकिन नये नये लेखकों को पढ़ना उसका शौक है | पहले अध्याय ने ही उसकी रुचि जगा दी | उसे उपन्यास खासा पसंद आ रहा था | वह उपन्यास में खो गयी | दो तीन अध्याय निपटाने के बाद ही उसने नजरें उठायीं | इस बार उसकी नजर पार्क में एकदम सामने की बेंच पर बैठे एक नवयुवक पर ठहर सी गयी | बेंच पर अकेला बैठा वह अख़बार में डूबा था | पहले तो कभी इसे यहाँ देखा नहीं...शायद किसी के यहाँ आया होगा...या फिर नया किरायेदार...वह उसके बारे में इतना क्यों सोच रही है...उसे क्या लेना देना...लहराते बालों को झटकते हुए उसने फिर से खुद को उपन्यास में डुबो लिया | धुंधलका छाने लगा था | पार्क रोशनी से नहा चुका था | ज्यादा रोशनी निवेदिता को अक्सर परेशान करती थी | उसने किताब बंद की और खिड़की बंद करने के लिये पीछे हटी ही थी कि उसकी नजर फिर उसी बेंच पर बैठे युवक पर गयी | इस बार वह सकपका गयी...वह युवक उसे ही देख रहा था...निवेदिता ने कुछ घूर कर उसे देखा लेकिन फिर भी युवक की नजरें उस पर ही टिकी रहीं...निवेदिता ने झटके से खिड़की बंद कर दी |

आज रात सोने से पहले निवेदिता की आँखों में वही चेहरा घूमने लगा | देखने में तो बेहद सीधा साधा है लेकिन उसका उसे ऐसे देखते रहना बिलकुल पसंद नहीं आया | उसे कुछ घबराहट सी होने लगी...ह्म्म्म... लेकिन वह क्यों घबरा रही है...उसने तो कुछ किया नहीं...अगर आगे भी ऐसा ही रहा तो सीधा पुलिस को फोन करेगी...जिस दिन चार छः लट्ठ पड़ेंगे तो अकल ठिकाने आ जाएगी बच्चू की...उसने अपनी डायरी उठाई और आज दिन भर के अनुभव अपने दिल की कलम से डायरी के पन्नों पर उड़ेल दिये | सागर सी गहराई समेटे निवेदिता के मन में डायरी लिखते समय एक ज्वार सा फूट पड़ता |

अगली शाम तय वक्त पर फिर खिड़की खुली | हाथों में वही किताब...पार्क के नजारों को कैद करने के लिये उसने नजरें उठाई तो सबसे पहले सहसा ही उसी बेंच पर नजर गयी...वह बेंच अभी खाली थी...उसे कुछ राहत सी मिली...उसने किताब पढ़नी शुरू की...| दो चार पन्ने ही पढ़ पाई होगी कि उसकी नजरें फिर उसी बेंच पर चली गयीं...ओह तो आज फिर आ गया...अभी तो अख़बार में ही ऑंखें गड़ाये है...वाकई में पढ़ता है या दिखावा करता है...वह सोच ही रही थी कि उस युवक ने अपनी निवेदिता की ओर घुमायीं | वह झेंप गयी | उसने झट से अपना चेहरा पार्क के दूसरी ओर घुमा लिया | थोड़ी देर तक इधर उधर देखते रहने का बहाना करने के बाद तिरछी नजर उस पर डाली...यह तो एकदम कमीनेपन पर उतारू हो गया है...देखे ही जा रहा है...ऐसे मानने वालों में नहीं है...सोचते सोचते निवेदिता ने उस युवक की आँखों में ऑंखें डाल अपना सख्त ऐतराज जता दिया  | लेकिन यह क्या वह युवक तो बदले में मुस्कुरा दिया | उसकी मुस्कान इतनी निश्छल और निर्दोष थी कि एक पल में निवेदिता का सारा गुस्सा उड़नछू हो गया | उस शाम उसकी ऑंखें पार्क के तमाम चक्कर लगाकर वापिस उसी युवक पर लौटती रहीं...हर बार उसने उस युवक को उसे ही देखते पाया | इसके बावजूद न जाने क्यों वह उस पर गुस्सा नहीं कर पा रही थी | पार्क के हाई मास्क लाइट से रोशन होते ही उसने खिड़की बंद कर ली | वह युवक तब भी वहीं बैठा एकटक उसे निहार रहा था |   
डायरी लिखते समय भी उस युवक की मुस्कान उसकी आँखों में तैर रही थी | वह लिखने के लिये जैसे ही विचारों को जोड़ती वह मुस्कान सामने आकर सब बिखरा देती | बहुत कोशिश करने के बाद भी वह कुछ लिख नहीं पाई | ‘एक निश्छल और मनमोहक मुस्कान...’ बस यही लिखकर उसने आज का पन्ना खाली छोड़ दिया | क्या होगा अगर वह कल भी आया ? उसकी मुस्कान का क्या जवाब दे ? ऐसे सवालों के जवाब वह नींद में खो जाने तक भी ढूँढ न सकी |

आज शाम को वह समय से थोड़ा पहले ही खिड़की पर आ गयी | पार्क में अभी चहल पहल कम थी | युवक भी अभी नहीं आया था | उसने किताब खोली और आगे पढ़ने लगी | उपन्यास उसे इस कदर पसंद आ रहा था कि जल्दी से पूरा पढ़ लेना चाहती थी लेकिन उस युवक ने इसमें कुछ ब्रेक सा लगा दिया था | आज हर दो मिनट में उसकी नजरें उस बेंच को टटोलने लगतीं जिसे वह खाली नहीं देखना चाहती थी | रोज तो इस समय तक आ जाता था लेकिन आज न जाने क्यों अभी तक नहीं आया था | अब तो लाइट्स जलने का भी समय हो रहा था...थोड़ी देर में वह खिड़की बंद कर देगी...कहीं वह चला तो नहीं गया...शायद किसी का मेहमान ही रहा होगा...वह कुछ मायूस हो गयी...चेहरे को उदासी ने घेर लिया...क्यों ?...उसे भी नहीं पता...| वह खिड़की बंद करने लगी...तभी उसे लगा जैसे कोई उसकी तरफ दौड़ लगाता आ रहा है | शायद वही युवक है...वह तेजी से आया और खिड़की की तरफ कागज का गोला उछाल दिया | यह सब इतनी तेजी से हुआ कि निवेदिता कुछ समझ ही नहीं पाई | युवक आँखों से ओझल हो चुका था | एकबारगी तो वह घबरा ही गयी |

खिड़की बंद कर उसने धड़कते दिल से वह कागज उठा लिया | क्या होगा इस कागज में...उसके माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आयीं | उसने मुड़े तुड़े कागज को मेज पर सीधा रखकर दो तीन बार हाथ फेरा तब जाकर वह कुछ पढ़ने लायक हो पाया | ‘मैं जानता हूँ कि मेरा आपको यूँ देखना आपको पसंद नहीं | लेकिन आपका आकर्षण मुझे चाह कर भी आपको देखने से नहीं रोक पाता | माफ़ करियेगा लेकिन मेरा कोई गलत इरादा नहीं है | फिर भी आपको यह पसंद न हो तो इस कागज को कल शाम मेरे सामने ही खिड़की से नीचे फेंक दीजियेगा | -रचित’ निवेदिता एक सांस में पढ़ गयी | आकर्षण...यह शब्द उसके कानों में गूँजने लगा...उसमें ऐसा भी कुछ है जो किसी को आकर्षित कर सके...? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था | वह सहसा बड़े से आईने के सामने आ गयी | दो चार साल पहले ही यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी निवेदिता ने एक भरपूर नजर खुद पर डाली | हम्म...ठीक ठाक ही थी लेकिन इतना आकर्षण ? युवक की बात पर विश्वास नहीं ही कर पा रही थी कि तभी उसे किसी की कही बात याद हो आई कि ख़ूबसूरती तो देखने वाले की आँखों में होती है | आज उसका दिल बल्लियों उछल रहा था | जी कर रहा था कि बस उठे और आइटम सांग पर जोरदार डांस कर डाले | उसने अपनी डायरी निकाली और उमड़ घुमड़ रहे जज्बातों को कागजों पर बिखेर दिया |   
  
वह युवक रचित वैसा बिलकुल नहीं था जैसा उसने पहले दिन सोचा था | उसकी मुस्कान देख उसने काफी हद तक अंदाजा लगा लिया था | अगली शाम खिड़की पर आने से पहले उसने अपने आपको थोड़ा संवार लिया | मेकअप का कभी कोई शौक नहीं रहा | आज पहली बार बिना किताब लिये ही खिड़की पर आ बैठी | किताब की जगह उसके हाथों में था वही कागज...खिड़की खोलते ही वह हैरान हो गई...रचित बेंच पर बैठा इधर ही देख रहा था | उसे देख रचित मुस्कुरा दिया...निवेदिता भी खुद ब ख़ुद मुस्कुरा पड़ी जैसे उसका खुद पर काबू ही न हो | लेकिन आज कुछ परेशान सा दिख रहा था | वह कभी टहलने लगता तो कभी दौड़ लगाने लगता फिर वापिस आकर प्रश्नवाचक मुद्रा में उसे निहारने लगता | वह समझ नहीं पाई...उसने कागज उठाया और उकेरे गये शब्दों को फिर से पढ़ने लगी | आखिरी लाइन पढ़ते ही वह रचित की बेताबी को समझ गयी | उसने रचित को कागज दिखाया और साथ में मुस्कुरा दी | इस मुस्कान ने रचित की मुस्कान भी लौटा दी | लाइट्स ऑन होते ही वह खिड़की बंद करने के लिये पीछे हटी...रचित भी उठ खड़ा हुआ...निवेदिता ने हाथ में लिये कागज को धीरे से खिड़की के बाहर निकाला...यह देख रचित सकपका गया | उसका चेहरा देख निवेदिता की हँसी फूट पड़ी...उसने शरारत भरी नजरों से रचित को देखा और मुस्कुराते हुए हाथ हिलाकर खिड़की बंद कर ली | रचित ने ख़ुशी से हाथ झटक दिये...बंद होती खिड़की से निवेदिता ने देखा था |   
       
सिलसिला शुरू हो गया था | दोनों रोज घंटों बैठे एक दूसरे को निहारते रहते | महीना भर बीत गया | बात अभी भी एक दूसरे को निहारने और मुस्कुराने तक ही सीमित थी | निवेदिता को यह बात अखरने लगी थी | उसे ताज्जुब था कि उस दिन के बाद रचित ने उससे बात करने की कोई कोशिश तक नहीं की थी | न तो कागज का गोला ही खिड़की से फेंका, न अपना मोबाइल नम्बर दिया, न वाट्सएप, न फेसबुक...और तो और कभी पार्क में आने तक के लिये कहा...ओफ़्फ़ो...उसे लगने लगा जैसे वह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के जमाने में रह रही है | ह्म्म्म...फेसबुक से उसे कुछ याद आया...उसने झट से अपना लैपटॉप ऑन किया, फेसबुक खोला और सर्च बॉक्स में रचित टाइप कर दिया | एक लम्बी लिस्ट उसके सामने थी | वह हर प्रोफाइल ध्यान से देखती...लेकिन बहुत ढूँढने के बाद भी उसे वह रचित नहीं मिला जिसे वह ढूँढ रही थी | वह निराश हो गयी | ‘जनाब फेसबुक पे भी नहीं हैं...मोबाइल नंबर दे नहीं सकते...जब खुद कदम नहीं बढ़ा सकते तो मुझे भी क्या पड़ी है...खिड़की से ही ताकते रहो बस्स...’ गुस्से से बड़बड़ायी थी वो |   
          
अगले दिन वह खिड़की पर देर से आई | रचित इधर ही देख रहा था | उसने एक नजर रचित पर डाली | वह हमेशा की तरह मुस्कुरा रहा था | लेकिन आज निवेदिता के चेहरे ने भाव नहीं बदला | उसने चेहरे पर नाराजगी का लबादा ओढ़ रखा था | झटके से उसने नजरें पार्क के दूसरे कोने की ओर घुमा लीं | निवेदिता ने किताब में नजरें गड़ा दीं | वह रचित को न देखकर अपना गुस्सा साफ़ साफ़ जता देना चाहती थी | काफी देर बाद जब उसने नजरें उठायीं तो सकपका गयी | रचित बेंच पर नहीं था | शायद टहलने लगा होगा | उसने पूरे पार्क में नजरें दौड़ायीं लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया | ‘शायद चला गया...रोज तो मेरे खिड़की बंद करने के बाद ही जाता था फिर आज जल्दी कैसे...कहीं नाराज तो नहीं...हुँह...हो जाये नाराज...बड़े आये हैं गुस्सा दिखाने...’ निवेदिता मन ही मन फुसफुसा रही थी | उसने भी खिड़की बंद कर दी |

अगली शाम जब वह खिड़की पर बैठी तब तक रचित नहीं आया था | आज उसे कुछ बेचैनी महसूस हो रही थी | न जाने क्यों रचित का चेहरा उसकी आँखों के सामने बार बार घूम रहा था | काफी इंतजार के बाद भी वह नहीं आया | अब तो अँधेरा भी छाने लगा था | ‘क्या सच में नाराज हो गया ? लेकिन मैं तो बस...ऐसे भी कोई करता है क्या...उसे भी क्या जरूरत थी ये सब करने की...वो तो बैठा मुस्कुरा रहा था...लेकिन उसने ही नजरें घुमा ली थीं...’ कल जो हुआ उसके लिये निवेदिता को खुद पर गुस्सा आने लगा | उसने जोर की आवाज से खिड़की बंद की और बिस्तर पर धड़ाम से लेट गयी | अपना चेहरा तकिये से भींच लिया | अचानक उसका कमरा सिसकियों से भर उठा | चेहरा आँसुओं से नहा गया | रचित को खो देने के डर ने उसके दिल को उदासी के समन्दर में गहरे तक डुबो दिया |     

उस रात नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी | जिससे उसकी कभी बात तक नहीं हुई थी उसने उसके दिल में इतनी अंदर तक जगह बना ली थी कि वह खुद हैरान थी | उसकी मुस्कान ने कैसा जादू कर दिया था उस पर...आखिर उसे हो क्या गया है...कहीं...कहीं उसे प्यार तो नहीं...वह खुद से शर्मा गयी...लेकिन उसका प्यार तो रूठा हुआ है...वो आएगा...अगर उसे भी मुझसे प्यार है तो वो जरूर आएगा...वह रात भर इन्ही ख्यालों में डूबती उतराती रही |        
अगले कई दिन तक वह खिड़की पर आती लेकिन वह खाली बेंच उसे मुँह चिढ़ाती रही | वह नहीं आया | वह निराशा के भँवर में घिर चुकी थी | खुद को कोसती रहती | कभी कोई उस बेंच पर बैठ जाता तो यह सोचकर मुस्कुरा उठती कि रचित होगा लेकिन अगले ही पल फिर सिकुड़े होठों पर दरारें बढ़ जातीं | उसका मन हार मानने को तैयार नहीं था | यह किताब भी उसे विपरीत परिस्थितियों से जूझने की हिम्मत दे रही थी |

आज पूरा एक महीना हो गया था | रचित नहीं आया था | निवेदिता भी उम्मीदें लगभग छोड़ ही चुकी थी | अब उसे खिड़की से डर सा लगने लगा था | लेकिन दिल के किसी कोने में दबी आस उसे खिड़की पर बैठने को मजबूर कर देती | रोज की तरह आज भी उसने खिड़की खोली और देर तक किताब पढ़ती रही | पार्क की लाइट्स ऑन होते ही चारों तरफ हताश नजरें दौड़ायीं | वह खिड़की बंद करने के लिये बोझिल मन से पीछे हटी ही थी कि अचानक हाथ हिलाता हुआ कोई उसकी तरफ आता दिखा | अँधेरे की वजह से वह चेहरे को साफ़ नहीं देख पा रही थी | लेकिन पास आते आते उसका चेहरा साफ़ दिखने लगा | उसे देखते ही निवेदिता का दिल कुलांचे भरने लगा | वह रचित था | इससे पहले कि वह कुछ और समझ पाती एक कागज का गोला उसके पास गिरा और रचित भी बिना कुछ कहे गायब हो गया |

निवेदिता ने फ़ौरन कागज उठाया और दिल की धौंकनी संभाल उसे पढ़ना शुरू कर दिया | ‘माफ़ करना, मैं आपको बता नहीं पाया | दरअसल मुझे इंटरव्यू देने अचानक दिल्ली जाना पड़ा | मुझे उम्मीद है कि आपको ये जानकर बेहद ख़ुशी होगी कि मेरा चयन अधिकारी पद पर हो गया है | मैंने आज तक आपसे बात करने की कोशिश नहीं की क्योंकि मैं अपने आपको इस लायक नहीं समझता था | लेकिन आज खुद को इस स्थिति में पा रहा हूँ कि अपने मन की बात कह सकूँ | मैं आपको अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहता हूँ...शादी करना चाहता हूँ आपसे...आपकी सहमति की प्रतीक्षा में...रचित’ | निवेदिता के हाथ कांपने लगे...चेहरे का रंग उड़ गया...वह चुपचाप बेड के पास आ गयी | उसने आँखे मूँद लीं...पल भर में गर्म आँसुओं की धार फूट पड़ी...सपनों के आसमान में उड़ रही उसकी भावनाएं अचानक ही यथार्थ के धरातल पर आकर धड़ाम से गिरी और टुकड़े टुकड़े हो गयीं...नहीं...नहीं ये मुमकिन नहीं...मुझे माफ़ कर देना रचित मैं तुम्हारे लायक नहीं...बस्स उसके मुँह से बमुश्किल यही शब्द निकल पाये...अभी तक काँप रहे हाथों से उसने दीवार के सहारे रखी बैसाखियाँ उठायीं और व्हीलचेयर से उठकर बिस्तर पर धम्म से औंधे मुँह लेट गयी | वह किताब जहाँ तक पढ़ चुकी थी वहीं पर उसने स्टॉपर लगा दिया था और शायद अपनी इस अधूरी कहानी पर भी |     



Story by: Nitendra Verma
  Writer, Blogger                 


8 comments:

  1. Wah nitendra, ghajab yar. Bahut khub

    ReplyDelete
  2. नितेंद्र साहेब
    बहुत सुन्दर कहानी|
    भाषा पर आपकी पकड़ अच्छी है ही........साथ ही शब्दों का सटीक पयोग करना भी आप खूब जानते हैं .....बहुत बहुत बधाई आपको|

    ReplyDelete
  3. Awsm story..... I wise you continue the more and more story write .....and story are fabulous in future....

    ReplyDelete
  4. bahut achi kahaani hai sir...inspiring

    ReplyDelete
  5. Very nice story...gajab aur sadhi hui bhasha shaili ...0

    ReplyDelete
  6. गजब.।.नितेन्द्र जी।
    क्या जादू हैं आपकी ँलेखनी मे।

    ReplyDelete