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Sunday, May 7, 2017

कविता - "अपने गाँव की होली"

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शैलेन्द्र मुहाले 
शैलेन्द्र मुहाले  की लिखी कविता "अपने गाँव की होली" पढ़ें...और शेयर करें...








अपने गाँव की होली

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मुझे अपने गाँव की
होली याद आती है 

अपने मतवाले दोस्तों की 
टोली याद आती है
चाहे किसी पेड़ की शाख हो 
या किसी घर का
लकड़ी का सामान 
अपने मतवाले दोस्तों की
हर घर से चोरी याद आती है
मुझे अपने गाँव की
होली याद आती है
घर घर जाकर 
दोस्तों को रंगना 
ठोल की थाप पर 
मस्ती  से उछलना
रंग लगी शक्लों
का वो हंसना 
हर गली में शोर
मचाते उछलना 
वो शोर हुडदंग
मस्ती याद आ
याद आती है 
मुझे अपने गाँव की
होली याद आती है
वो भांग की गोली
खाकर बहकना
अपने दोस्तों की
शक्लें देखकर हंसना
बचकर भागने वालों
का वो पल  दौड़कर पकड़ना
याद आती है वो बातें
मन को गुदगुदाती है 
मुझे अपने गाँव की
होली याद आती है

  

शैलेन्द्र मुहाले, अधिकारी Scale I(बैंक –सार्वजनिक क्षेत्र)  
इंद्रा कालोनी, मेन रोड, बनपुरा, मध्य प्रदेश

2 comments:

  1. सच में आपने तो गाँव की होली याद दिला दी...

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