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Sunday, March 19, 2017

ख्याली पुलाव - जूते की आत्मकथा


व्यंग– जूते की आत्मकथा

सं
ध्या का समय था सूर्य देव अपनी दिनभर की यात्रा से थक कर पश्चिम में एकत्र रुई के ढ़ेर के समान बादलों में छिपकर विश्राम करने पहुँचे इधर कॉलेज से शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त मैंने गांव की तरफ प्रस्थान किया गांव के निकट आकर मैंने देखा कि एक स्थान पर जूता
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पड़ा है उसकी दशा बहुत ही सोचनीय थी न जाने इसमे क्या बात थी कि उसके सम्बन्ध में कितने विचार हमारे अंतर्मन में हिलोरे मारने लगे और उसकी आत्मकथा जानने के लिए उत्सुक हो उठा । इसी प्रकार विचार करता हुआ घर पहुंचा | भोजन करने के उपरान्त मैं निद्रा देवी की गोद में शोभायमान हो गया । मैंने स्वप्न में देखा कि वही फटा हुआ जूता मनुष्यरूप में परिवर्तित होकर मुझसे कह रहा है कि.......

                  मेरी बहुत दिन से अभिलाषा थी कि मैं किसी को आत्मकथा सुनाऊँ । परन्तु कोई ऐसा अवसर प्राप्त नही हुआ । मुझे अपने जन्म का सन-संवत दिन तो याद नही पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि पहले मेरे अंजर-पंजर का पता नहीं था । मेरे पिता का नाम जिससे मेरा शरीर बना है "चमड़ा" है | मेरा निर्माण करने वाला एक "मोची" था । यद्यपि उसने मुझे बहुत कष्ट दिया तथापि अपने भाग्य की परीक्षा के लिए उसकी रांपी और कटनी की बौछारों आदि को सहन किया और मैं संसार में विचरने के लिये छोड़ दिया गया । मै समीप के बाजार में सजा कर बेचने के लिए रखा गया।

                   मेरा आदर यद्यपि बड़े-बड़े अमीर नही करते थे । परन्तु किसान जो ही मुझे देखते थे मेरी सराहना करते थे और मैंने बहुतो के हाथो में पदार्पण भी किया । लेकिन मैं किसी के साथ न  गया । मैं दूसरी बाजार को फिर बेचने के लिये सजाकर रखा गया और दैव-योग से एक बनिये ने मेरे मालिक को कुछ पैसे दिये और मुझको लेकर गांव की तरफ चल दिया । मैं भी प्रसन्नता पूर्वक उसके घर पहुंचा अपना जीवन आनन्द से व्यतीत करने लगा।

                    "सब दिन होत न एक समान"  
         पहले तो उसने मुझे बहुत प्यार किया और अपने साथ-साथ मुझे रखने लगा लेकिन यही साथ का रहना मेरे लिये दुखदाई हो गया और पैर में पड़ा हुआ अपने पूर्वजन्म का फल भोगने लगा । यद्यपि मैं सदैव उसकी भलाई ही करता रहता था लेकिन उसको जरा-सा भी मेरे ऊपर तरस न आया । अन्त में उसने पैरों से रगड़-रगड़ कर मेरी कचूमर तक निकाल ली और मुझको इस हालत में करके अपने सामने फेंक दिया । वहां से मुझको एक कुत्ता मुंह में दबाकर ले चला, उसने मुझे बहुत दुःख दिया और मेरे अंग-भंग कर ऐसी जगह डाला जहां पर मैं बिल्कुल अपरिचित था । इससे मैं बिल्कुल बलहीन हो गया था । मेरे अस्थि पंजर इधर-उधर कुछ तो लटक रहे थे कुछ का पता ही नही था । आगे क्या कहूं कुछ कहा नही जाता । मैंने भी सोचा कि जो कुछ मेरे भाग्य में लिखा था वही हुआ । अब मैं किसी के योग्य नही रहा ।

                 इतना कहते-कहते उसकी आँखों से आंसू निकल आये । वह फिर अपनी दशा में आ गया । इतने में मेरी आंखें खुल गई।
              

   - अंकुर पटेल
Student, B.Sc. (H), Physics,II Year
Deen Dayal Upadhyaya College, Delhi University
 


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