Menu bar

New Releasing soon...my new novel कंपू 007..a topper's tale कंपू 007...a topper's tale
New इस ब्लॉग के पोस्ट को मीडिया में देखने के लिये MORE menu के Milestone पर क्लिक करें..

Monday, December 12, 2016

सफलता की कहानी - 6

सफलता की कहानी - 6 

विषम परिस्थितियों से जूझना और विजेता बन कर उनसे बाहर निकलना आसान काम नहीं है | जो ऐसा करते हैं वही  होते हैं असली हीरो | ऐसे लोग बन सकते हैं तमाम लोगों के लिये प्रेरणा स्रोत | इनको कहीं ढूंढने जाने की जरुरत नहीं होती | ये हमें हमारे आसपास ही मिल जाते हैं...हमारे दोस्त, गुरु, पड़ोसी या किसी और रूप में | यहाँ पर हम ऐसे ही लोगों की सफलताओं की कहानी रखेंगे आपके सामने |


इस सीरीज के छठे अंक में प्रस्तुत है कहानी एक ऐसे ही विजेता रीतेश पटेल की | तो चलिए जानते हैं उनकी सफलता की कहानीउनकी अपनी कलम से...

सफलता की कहानी
रीतेश पटेल  
M.Sc, B.Ed

प्रेरणा स्रोत
ए पी जे अब्दुल कलाम,मदर टेरेसा    
हॉबी
गाने सुनना, क्रिकेट खेलना और देखना, पढ़ना, पढ़ना, अच्छी फ़िल्में देखना, नयी नयी जगह घूमना     
पसंदीदा किताब
गोदान(मुंशी प्रेमचंद)
  गर्मी की छुट्टियों के बाद आज पहली जुलाई को स्कूल पहुंचकर बहुत ही अच्छा लग रहा था | कारण चालीस दिन की छुट्टियों के बाद आज एकदम तरोताजा होकर स्कूल पहुंचे, पर स्कूल का वातावरण बिलकुल हमारे व्यवहार से अलग था | चारो ओर गंदगी, कचड़ा, धूल अपनी उपस्थिति पूरे स्कूल में दर्ज करा रही थी और आशा के अनुरूप ही आज बच्चों का सर्वथा अभाव था | लेकिन पीछे से हमारे कानो में गुड मोर्निंग सर जी के अभिवादन की आवाज आई, पलटकर देखा तो अमित था | हमारा आज्ञाकारी शिष्य अमित हमेशा की तरह अपने गुरुजनों का सम्मान करने के लिए हाजिर था | अमित थोड़ा सा हकलाता और थोड़ा रुक कर बोलता था और अपनी बात को कहने में कुछ ज्यादा टाइम लेता था | पढ़ने-लिखने में बेहद कमजोर या यूं कहें तो कक्षा में वह नीचे से टॉप पर था, लेकिन हमेशा गुरुजनों के सम्मान में कभी भी पीछे नही रहा | अभी बात है पिछले वर्ष एक जनवरी को नव वर्ष के दिन स्कूल खुलने पर सभी बच्चे नियमित तरीके से स्कूल आकर अपनी दिनचर्या में ब्यस्त थे लेकिन वह सिर्फ अमित ही था जो देर से आने के बावजूद सीधा हम लोगों के पास आया और आते ही हम लोगों के पैर छूकर हैप्पी न्यू इयर विश किया था | उस दिन से अमित हम लोगों का विशेष प्रिय हो गया था |

      वैसे तो हमारा स्कूल अच्छी शिक्षा अच्छी दिनचर्या के लिए जाना जाता था लेकिन इधर कुछ दिनों से बच्चों की गिरती उपस्थिति ने हम सब लोगों के माथे पर चिंताएं जरुर बढ़ा दी थी | इसके साथ ही साथ हमारे विद्यालय में इस बीमारी का अलग-अलग प्रकार से उपचार भी किया जाता था पर उपचार के साथ ही साथ यह बीमारी और तेजी से अपने पैर पसार रही थी, परन्तु ऐसा नही था कि हमारे किये जा रहे प्रयास सर्वथा ही व्यर्थ थे | इसके विपरीत रेखा, निशा, अमन, मुकेश, सोनम, रंजना आदि दर्जन भर ऐसे बच्चे थे जो हम लोगों की दी गयी शिक्षा को समझते और पूरा सम्मान देते थे | ये ऐसे बच्चे थे जो शत-प्रतिशत उपस्थिति के लिए जाने जाते थे साथ ही शैक्षिक कैलेंडर में जोरदार प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन हमने अपने मानक सारे बच्चों पर तय किये थे | साथ ही दूसरा पहलू ये भी था कि अनीता, अचला, आशीष, अजय, सुमित आदि दर्जन भर से ज्यादा बच्चे ऐसे भी थे जो महीनो स्कूल से गायब रहते थे | उनको स्कूल बुलाने के लिए किये गये प्रयास सर्वथा ही व्यर्थ रहते थे | हमारे मंसूबों पर पानी फेरने के लिए उन बच्चों के अभिभावक भी उनका जोरदार तरीकों से साथ देते थे | बीच-बीच में हमारे स्कूल की एक अन्य अध्यापिका उन अभिभावकों को बुलाकर इस बारे में बहुत ही शालीनता के साथ बात करती लेकिन अभिभावक भी उनके मंसूबों पर पानी फेरने में पीछे नही रहते थे | ये किये जा रहे प्रयास लगभग व्यर्थ साबित हो रहे थे |

      और एक वो हमारा समय था कि कभी स्कूल से गैरहाजिर होने की हिम्मत नही कर सकते थे और कभी ऐसा अवसर भी आया तो पापा के कड़े अनुशासन के कारण हमारे मंसूबों पर पानी फिर जाता था, कभी एक दो बार पेट दर्द, बुखार आदि का बहाना भी बनाया तो सीधा उनका जवाब होता था कि स्कूल जाओ अपने आप ठीक हो जायेगा और अगर फिर भी ना ठीक हो तो स्कूल में ही हमसे बताना | वैसे घर में हम तीन भाई बहनों में हम सबसे बड़े थे और बड़े होने की वजह से घर में अपेक्षाएं भी कुछ ज्यादा ही थीं | पापा सरकारी स्कूल में अध्यापक थे | उनके अध्यापक होने की वजह से वह बच्चों की इस प्रकार की हर एक गतिविधि से भलीभांति परिचित थे | कक्षा 6-8 तक की शिक्षा बगल के गाँव में पापा के स्कूल में ही हुई | पापा का स्कूल घर से सिर्फ एक किमी. की दूरी पर था और हमारे गाँव के सभी बच्चे पास के उसी गाँव में ही पढ़ने जाते थे | उस गाँव में एक सरकारी प्राइमरी, एक प्राइवेट मांटेसरी स्कूल और एक जूनियर स्कूल था, जिसमे हम अन्य बच्चों के साथ पढ़ते थे | उनका कड़क अनुशासन था कि कभी उनसे खुलकर बात नही कर पाया, कभी कोई जरूरत पड़ने पर माँ का ही सहारा होता था | उनसे अपनी मांग रखना और उसे पूरा कराने की जिम्मेदारी माँ की ही होती थी | ऐसा नही कि पापा ने कभी किसी जरूरत के लिए मना किया हो लेकिन उनके प्रति बसा एक डर था कि अगर उन्होंने मना कर दिया तो, कहीं डाटने न लगे आदि-आदि |

            6-8 तक की शिक्षा अव्वल दर्जे से पास होकर पड़ोस के कस्बे के स्कूल में एडमिशन हो गया जहाँ से हाईस्कूल सेकंड क्लास में पास होकर कानपुर महानगर के एक इंटर कालेज में एडमिशन हुआ | हाईस्कूल परीक्षा के दौरान उसी वर्ष उत्तर प्रदेश में पहली बार नकल अध्यादेश लागू हुआ था | उस वर्ष आज तक हाईस्कूल और इंटर बोर्ड परीक्षा के इतिहास का सबसे कम रिजल्ट आया | ज्यादातर स्कूलों में पास होने वालों की संख्या को उँगलियों में गिना जा सकता था और कुछ स्कूल तो पूरी तरह उस रिजल्ट सीट से ही गायब थे |

      हाईस्कूल 2nd  क्लास में पास होने के पीछे रसायन विज्ञान का बहुत बड़ा रोना रहा | रसायन विज्ञान मुझे कभी भी ठीक से समझ नही आई प्रयास तो बहुत किये, लेकिन जैसे इसके लिए हमारे दिमाग के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे और इसका बहुत बड़ा श्रेय हमारे रसायन टीचर श्री के.एन सिंह को जाता है | उन्होंने कभी भी इसे न तो बेसिक रूप से समझाया और न मुझे इसकी सतही जानकारी मिल सकी |

      एक ग्रामीण परिवेश के बच्चे को एक बड़े शहर आकर किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, ये सब मुझे शुरूआती दिनों में खूब देखने को मिला | रोज ही एक अलग अनुभव मिलता था | शहरी बच्चों से बात करने में मन में एक अजीब डर बसा रहता था | उनसे खुलकर रिएक्ट नही कर सकते थे | उनका फर्राटेदार तरीके से बात करना हमारे आत्मविश्वास में कहीं न कहीं प्रश्न चिन्ह लगा रहा था, जबकि मुझे वहां रहने की कोई समस्या नही थी | मुझे अपने मामा के घर पर उनके साथ ही रहना था | मामा तो नौकरी करते थे और नौकरी के सिलसिले में बाहर ही रहते थे, कभी कभार ही उनका आना होता था लेकिन उनके अलावा घर में मामी और उनके दो बेटे थे जो हमसे उम्र में 4-6 साल छोटे थे मेरे दोनों ममेरे भाई मेरे लिए बहुत ही हेल्पफुल रहे | वह मेरे लिए सगे भाई जैसे रहे और उनकी ओर से मुझे भी एक बड़े भाई जैसा ही सम्मान मिला और आज भी मिलता है | रही बात मामा और मामी की तो वो भी बिलकुल नाम के अनुरूप ही रहे और उन्होंने भी मुझे हमेशा एक बेटे जैसा ही दर्जा दिया | उनके इस ऋण को अगर मैं कभी चाहूं तो भी नही उतर सकता | पढ़ाई के लिए मुझे वहां एक सर्वोत्तम वातारण मिला जो कि सफलता के लिए बहुत ही जरूरी होता है |

      यहाँ आकर मैंने ठीक उलट परिवेश पाया, मेरे दोनों ममेरे भाई अपनी हर डिमांड के लिए अपने पापा से लड़ते झगड़ते और रूठ जाते थे, जबतक कि वह अपनी बात मनवा नही लेते थे | उनका अपने मम्मी पापा के पास बैठना, हर एक छोटी बड़ी बात आपस में शेयर करना, कुछ भी प्लान करना आदि | उनका इस तरह का व्यवहार देखकर बहुत अच्छा लगता था |  

      इन्ही सब से सामंजस्य बिठाते पता ही नही चला कि कब दो साल बीत गये और हम ठीक-ठाक नम्बरों से इंटर पास कर चुके थे | अब बारी थी किसी महाविद्यालय में एडमिशन की | मैंने D.A.V डिग्री कालेज में B.Sc  P.C.M ग्रुप से एडमिशन लिया, लेकिन यहाँ आकर भी पहले वर्ष में वही सब समस्याएं सामने खड़ी थीं | उचित सामंजस्य न बिठा पाने के कारण 1st year  में मेरे मार्क्स में काफी गिरावट हुई लेकिन 2nd year  में आकर कुछ अच्छे दोस्तों से जान पहचान हुई, जिसका परिणाम मुझे अपनी पढ़ाई में दिखाई दिया | | 3rd year  में बहुत अच्छे मार्क्स आने से B.Sc लगभग अर्धशतकीय प्रतिशत से उत्तीर्ण हुआ |

      B.Sc  थर्ड इयर के दौरान ही मुझे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने की विशेष रूचि हुई | और मैंने थोड़ी बहुत मात्रा में इस ओर शुरुआत भी कर दी | मुझे आज भी ठीक से याद है मामा के घर की वो सीढियां और सीढ़ियों से लगा हुआ वो अमरुद का पेड़ | उन सीढ़ियों पर बैठकर सुबह-सुबह पढ़ने में जो ताजगी का अहसास होता था वो शब्दों में बयाँ नही कर सकता | पेड़ में लगे हुए अमरुद और उसके हिलते हुए पत्ते जैसे मुझे आगे बढने की प्रेरणा देते थे | वहां बैठकर पढ़ते-पढ़ते कई घंटे कैसे निकल जाते थे ये पता ही न चलता था |

      मैंने वर्ष 97 में B.Sc  कम्प्लीट किया और उसी वर्ष रिजल्ट आने के कुछ दिन बाद ही B.T.C की वैकेंसी आयीं जिस पर मैंने अप्लाई किया और अप्लाई करने के बाद अगले वर्ष इसकी प्रवेश परीक्षा हुई |

             यह वो समय था जब B.T.C करना बहुत अच्छा माना जाता था कुल मिलाकर एक नये युग की शुरुआत थी क्योंकि एक डेढ़ दशक पहले लोगों को B.T.C करने के बाद 10-15 साल तक नौकरी के लिए इन्तजार करना पड़ा था | लेकिन वर्ष 1995 तक पूर्व के सभी लोगों को नौकरी मिल चुकी थी और अब इस समय ट्रेनिंग पूरी करने के बाद ही नौकरी मिल जाया करती थी |

      खैर कुछ भी हो लेकिन ये मेरे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का प्रारम्भ ही था, वैसे मेरी तैयारी ठीक चल रही थी और मुझे अपनी तैयारी को परखने का एक मौका जो मिल रहा था | मैंने अपने गृह जनपद से अप्लाई किया क्योंकि उस समय गृह जनपद की बाध्यता हुआ करती थी | यह B.T.C का पहला बैच था जिसकी न्यूनतम योग्यता स्नातक थी इससे पहले B.T.C  करने की न्यूनतम क्वालिफिकेशन इंटर हुआ करती थी | हर जिले में निर्धारित 50 सीटों के सापेक्ष 25 महिला और 25 पुरुष अभ्यर्थी ही चयनित होने थे और इन 25 सीटों में 12-13 पद विज्ञान और कला के लिए थे |

      अच्छी तैयारी और सकारात्मक सोंच के साथ मैंने मार्च 98 में हुई परीक्षा में प्रतिभाग किया | मेरा पेपर बहुत अच्छा हुआ लेकिन प्रतियोगी परीक्षाओं में होने वाली सेटिंग-गेटिंग के बारे में अच्छी तरह सुन रखा था इसलिए रिजल्ट के बारे में बहुत ज्यादा आशान्वित नही था पर मन में कहीं न कहीं एक हल्की से उम्मीद जरुर थी | किन्ही कारणों से रिजल्ट में विलम्ब हो रहा था | रिजल्ट न निकलने से मुझे बहुत निराशा हुई |

      अब मुझे अगले पड़ाव हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की आगे की तैयारी हेतु इलाहबाद जाना पड़ा | उस समय इलाहबाद प्रतियोगी परीक्षाओं हेतु गढ़ माना जाता था | हजारों की संख्या में लोग अपना भविष्य बनाने इस नगरी हर वर्ष पहुंचते थे | इसकी संख्या का वास्तविक अंदाजा आप शाम के समय बाहर निकल कर लगा सकते थे, ऐसा लगता था जैसेकि यहाँ सामान्य लोग रहते ही नही हों | जिस गली, चौराहे में देखो सिर्फ पढ़ने वाले बच्चे, पढ़ाई लिखाई की चर्चा | हाईस्कूल, इंटर, B.A, B.Sc, इंजीनियरिंग, मेडिकल, रेलवे, N.D.A, C.D.S, I.A.S, P.C.S  आदि की तैयारी करने वाले बच्चे हर गली मुहल्ले और हर घर में भरे पड़े थे | वहां की एक विशेष बात थी, शाम और सुबह की चाय चौराहे पर ही हुआ करती थी | कमरे में चाय बनाने की परम्परा नही होती थी, सबकी एक अपनी विशेष दुकान हुआ करती थी और वह अपनी सुनिश्चित दुकान पर ही चाय का रसास्वादन करता था | ये एक रूपये की चाय उस समय हम लोगों के दिमाग में अमृत का काम किया करती थी |

      उस समय हमारी दिनचर्या बिलकुल मशीनी हुआ करती थी, अँधेरा छटने के साथ ही हम लोगों की सुबह हो जाया करती थी | तुरंत फ्रेश होकर, नहा-धोकर सीधे नेता चौराहा जगराल होटल पहुचते थे | वहां पर अन्य चिर परिचित लोग भी उसी समय पंहुचते थे | बाहर चाय पीने जाने का  एक और फायदा हुआ करता था कि चाय पीने के दौरान ही कई सारे न्यूज़पेपर देखने को मिल जाते थे | आपसी बातचीत और दिनचर्या आदि की बातें होती थी, फिर हम लोग वापस आकर अपने मिशन में लग जाते थे, जो लगभग 11 बजे तक चलता था | फिर खाना बनना शुरू होता था | हमारे रूम पार्टनर हमसे सीनियर थे और वहां पर जूनियर और सीनियर के बीच की खाई आज भी बहुत बड़ी हुआ करती है | जूनियर को हमेशा सीनियर का सम्मान करना पड़ता था और ज्यादातर ‘भाई साहब’ से ही सम्बोधित करते थे | लेकिन इसके एवज में सीनियर से जूनियर को बहुत सारी सुविधा और सहूलियत भी मिलती थी |

      खाना दोनों टाइम बनाने की परम्परा थी | दोपहर में दाल रोटी चावल और शाम को सब्जी रोटी ही बनती थी | खाना बनाने के शुरूआती दिनों में मुझे आटा गूंथने और रोटी बेलने की ही जिम्मेदारी मिला करती थी | हमारे पार्टनर का काम रोटी सेंकना और सब्जी, दाल आदि बनाना हुआ करता था | हाँ बर्तन जरुर हम एक-एक टाइम साफ करते थे | शुरुआती दिनों में हमे अपने रूम पार्टनर से खाना बनाने और पढ़ने-लिखने से लेकर दुनियादारी के बारे में खूब लेक्चर सुनने को मिलते थे | हमे क्या करना चाहिए, क्या नही करना चाहिए, हम क्या पढ़ें, क्या न पढ़ें, किससे मिलें, किससे न मिलें आदि-आदि |

      हम जिस मकान में रहते थे वहाँ पर मकान मालिक के अलावा सात कमरों में तैयारी करने वाले लोग रहते थे | ये वहां पर बढ़ती किराये की डिमांड थी कि मकान मालिकों ने अपने आप को एक या दो कमरों में सीमित कर लिया था | खाना बनाने और खाने में कुल डेढ़ घन्टे से ज्यादा समय नही लगना चाहिए, बर्तन नेक्स्ट टाइम खाना बनाने के पूर्व ही धुलने की परम्परा थी | खाना खाने के ठीक बाद कोचिंग थी | कोचिंग से वापस आकर अन्य लोगों से मिलना जुलना तथा कभी-कभी परेड ग्राउंड भ्रमण आदि होता था | इसी बीच शाम की सब्जी और अन्य जरूरत की सामान लेकर हर हाल में सात या साढ़े सात बजे तक वापस रूम आ चुके होते थे | बर्तन धुलकर तुरंत खाना बनना शुरू हो जाता था फिर खाना खाकर लगभग 8-8:30 बजे से स्टडी शुरू हो जाती थी जो लगभग 11-12 बजे तक चलती थी और फिर सोना होता था | अगले दिन जगते ही यही साईकिल पुन: प्रारम्भ हो जाती थी |
       
इलाहबाद का परेड ग्राउंड मुझे बहुत अच्छा लगता था जब भी मुझे टाइम मिलता था किसी दोस्त के साथ या फिर अकेले ही यहाँ घूमने जाता था | वहाँ की शांति मुझे बहुत भाती थी | कभी-कभी घंटों अकेले ही वहाँ की अजीब शांति को महसूस करता था | कई बार घूमते हुए संगम भी गया लेकिन मुझे वो बात वहाँ नही मिली जो परेड ग्राउंड में थी | सरस्वती घाट भी घूमना बहुत पसंद था | परन्तु समय की कमी के कारण ज्यादा सम्भव न था | आज भी मुझे परेड ग्राउंड शाम के समय घूमने का अक्सर मन करता है पर अब समय की ब्यस्तता के कारण उस प्रकार घूमना सम्भव न हो पाया | वहां से आने के बाद कई बार जाने का मौका मिला, लेकिन उस समय की पूर्ति अब कभी भी नही हो सकती |

      इलाहबाद के दिनों में कुछ बहुत अच्छे दोस्त रहे, इनमे से मनोज सबसे नजदीक रहा | सबके लिए वह सदैव हेल्पफुल रहा | पर अफ़सोस, मनोज की किस्मत ने उसका साथ नही दिया | बाकी सब लोग आज गवर्नमेंट जॉब में अच्छे पदों पर कार्यरत हैं | मनोज हमेशा सबकी मदद के लिए आगे खड़ा रहता था | इलाहबाद जाने पर मनोज ने ही मुझे पूरा सहयोग दिया | मनोज हमारा कक्षा-6 के दिनों से मित्र था लेकिन इधर हाईस्कूल करने के बाद उससे मिलना जुलना कम हो गया था | वह इंटर करने के बाद ही इलाहाबाद चला गया था और हम तीन साल बाद B.Sc करने के बाद इलाहबाद पहुंचे | मेरे इलाहबाद पहुंचने पर उसने एक कदम आगे बढाकर मेरा स्वागत किया और जरूरत की सभी सामान और सहूलियत उससे मिली, जिसका मैं हमेशा ऋणी रहूँगा |

      लगभग एक वर्ष रहने के पश्चात मुझे M.Sc करने की जरूरत महसूस हुई तो कानपुर विवि. में एंट्रेंस देकर एक अच्छे कालेज में एडमिशन लिया और वापस आकर कानपुर मामा के यहाँ पुन: रहने लगा | एक वर्ष M.Sc करने के पश्चात B.Ed में सेलेक्शन हो जाने पर V.S.S.D कालेज कानपुर से ही B.Ed करने लगा | B.Ed करने के अंतिम दिनों में परीक्षा के दौरान पूर्व में दी गयी B.T.C का रिजल्ट आया जिसमे मेरा सेलेक्शन हो गया | आज भी मुझे ठीक से याद है कि 9 जून को मेरा B.Ed का आखिरी पेपर था और 11 जून को मुझे एडमिशन हेतु पहुंचना था | निर्धारित समय में आकर मैंने अपने गृह जनपद से एडमिशन लिया, लेकिन एक बार फिर से M.Sc पूरी करने पर प्रश्नचिंह लग गये | B.T.C करने हेतु मुझे फतेहपुर शिफ्ट होना पड़ा | इस बीच मैं बहुत से एग्जाम देता रहा, कई जगह आंशिक सफलता भी मिली परन्तु फाइनल सेलेक्शन कहीं नही मिल पाया |

      इन्ही सबके बीच मैंने सितम्बर 2001 में B.T.C पूरी कर ली फिर रिजल्ट आते और ज्वायनिंग की अन्य प्रक्रियाओं से गुजरते आख़िरकार वह दिन आया गया जिसका इन्तजार हर परीक्षार्थी को होता है | 18 सितम्बर 2002 को अपने गृह जिले में मुझे प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक पद पर ज्वायनिंग मिली |

      वर्ष 2002 से लेकर आज तक अध्यापन कार्य करते हुए लगभग तेरह वर्ष हो चुके हैं और इन तेरह वर्षों में कई तरह के अभिभावकों, बच्चों एवं अध्यापकों से परिचय और उन्हें जानने का  मौका मिला | प्रथम नियुक्ति में ही मुझे एक श्रेष्ठ अध्यापक के नेत्रत्व में काम करने का मौका मिला जिनका नाम था श्री प्रेम नारायण दुबे | एक बहुत ही कर्मठ और ईमानदार अध्यापक | उनको एक वर्ष में मिलने वाले 14 आकस्मिक अवकास शायद ही किसी वर्ष खत्म हो पाते थे | तीन वर्ष उनके 
सानिध्य में रहकर बहुत कुछ सीखा |

            नौकरी मिलने के एक वर्ष पश्चात् मेरी शादी हुई | मेरी पत्नी का नाम शशि है | उनकी सकारात्मक सोंच, स्पष्ट दृष्टिकोण हमेशा मुझे प्रभावित करती है | हमारे हर निर्णय में एक दूसरे की सहभागिता होती है | शादी के दो वर्षों पश्चात हमारे घर एक प्यारी सी बेटी का आगमन हुआ जिसका नाम हमने निकी रखा | कुल मिलाकर हमारी शादी के बारह वर्ष हो चुके हैं, लेकिन इन बारह वर्षों में कभी भी उनका कोई भी निर्णय गलत साबित नही हुआ |

      न्यूज़ पेपर में उनकी बराबर रूचि रहती है | दैनिक जागरण उनका प्रिय न्यूज़ पेपर है | सम्पादकीय पेज में कोई अच्छा विषय मिलने पर जरुर पढ़ती हैं और हमसे शेयर भी करती हैं | क्षमा शर्मा के लेख उन्हें बहुत पसंद आते है | इसके अलावा सन्डे को मेहमान कलम में सत्या शरन की कहानी उन्हें बहुत पसंद है | अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उनकी मनपसन्द शख्सियत हैं | आज की भारतीय राजनीति उन्हें बिलकुल पसंद नही है और यही कारण है कि राजनीति से उनका कोई भी आइडियल पर्सन नही है |

      T.V सीरियल और पारिवारिक फ़िल्में देखना उन्हें पसंद है | T.V देखने का उनका एक विशेष नजरिया होता है | स्टार प्लस में प्रसारित “ये रिश्ता क्या कहलाता है” उनका प्रिय सीरियल है | राजा की आएगी बारात, विवाह, हम आपके हैं कौन और बागवान उनकी मनपसन्द फ़िल्में हैं | ओवर आल अमिताभ बच्चन उनकी मन पसंद शख्सियत हैं | उन्हें 90’s का म्यूजिक बहुत पसंद है | सिंगर और म्यूजिक डायरेक्टर के बारे में काफी अच्छी जानकारी रखती हैं | वह अक्सर हमारे और हमारे विभाग की आलोचना करने में पीछे नही रहती | मसलन आप लोग स्कूल में बच्चों को पढ़ाते नही हैं, सिर्फ टाइम पास करने स्कूल जाते हैं | खाली सिस्टम को दोष देते हैं, करना कुछ नही चाहते | जो भी जिम्मेदारी मिली है उसका अच्छी प्रकार से निर्वाह करना चाहिए |

वर्ष 2009 में मुझे जूनियर विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद पर पदोन्नति मिली और आज तक मैं इसी विद्यालय में कार्यरत हूँ और बच्चों को कुछ अच्छा देने की कोशिश करता रहता हूँ | यहाँ मैं दीपक के बारे में जरुर बताना चाहूँगा | दीपक हमारे विद्यालय का बहुत ही प्रतिभावान बच्चा था | दीपक हमारे स्कूल की एक अन्य टीचर सुरभि मैडम का प्रिय छात्र था | वह जो भी करने की ठान ले उसे वह तो करके ही रहता था पर उसकी ये ललक चिरस्थायी ही होती थी | उसकी गलत सोहबत उसे आगे नही बढ़ने दे रही थी | पढ़ाई में होशियार होने के साथ ही दीपक में बहुत सारी बुराइयाँ भी थी जिसको वह स्वयं स्वीकार भी करता था | दीपक कक्षा-8 में पढ़ते हुए हर प्रकार के नशे का आदी हो चुका था | सुरभि मैडम और मैं उसे इन व्यसनों से दूर होने के लिए उसे बहुत समझाते थे पर वह इनसे दूर न हो सका और इसी का परिणाम था कि उसका दिमाग जितना तेज चलता था पढ़ाई में वह उससे कमतर ही रहा | उसके इन व्यसनों के बारे में उनके घर वालों को भी सब पता था | हम लोगों ने कई बार उसके घर वालों को बुलाकर बात की लेकिन परिणाम कुछ नही निकला और इन्ही सब व्यसनों के साथ ही दीपक हमारे यहाँ से कक्षा-8 पास करके चला गया | आज शिक्षण कार्य करते हुए लगभग 13 वर्ष बीत चुके हैं और इस बीच मुझे बहुत से बच्चों और अभिभावकों से मिलने और उन्हें जानने का मौका मिला |

      इसी वर्ष शिक्षक दिवस के अवसर मुझे अपने ब्लाक के कुछ अन्य शिक्षकों के साथ श्रेष्ठ शिक्षक का पुरस्कार मिला जो हमारी आज तक की मेहनत को सार्थक करता है और हमें कहीं न कहीं इन पुरस्कारों से आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा प्रदान करता है |


धन्यवाद।                                   
रीतेश पटेल                       
अध्यापक, उ प्र बेसिक शिक्षा परिषद्
M
.Sc( maths), B.Ed



(यह ‘Success Story’ e-mail द्वारा प्राप्त | यदि आपके पास भी है कोई ऐसी ही Success Story तो हमें भेज दें mail id: nitendraverma@gmail.com पर)    

1 comment:

  1. बहुत प्रेरणादायक लेख मै आशा करता हु की आप ऐसे लेख लिखते रहे और हमारे बीच कुछ सफलता के बिंदु प्राप्त हो सके ।।।

    ReplyDelete