संवेदना
ऑफिस जाने के लिये रोजाना की तरह तय स्थान पर पहुँच
अपनी मोटर साइकिल सड़क किनारे लगा कर मैं अपने सहकर्मी का इंतजार करने लगा | नवम्बर
के आखिरी दिन थे | घना कोहरा छाया था | ठण्ड भी खूब थी | मैंने खुद को स्वेटर और
जैकेट से ढक रखा था | तभी मेरी नजर पास बैठे एक अधेड़ पर पड़ी | बदन पर फटी कमीज और
पतलून डाले वह व्यक्ति रह रह कर काँप रहा था | ठुट्ठी घुटनों में घुसाये उकडू बैठा
वह जैसे खुद में ही सिमट जाना चाहता था | पैरों में टूटी चप्पल और लम्बे बिखरे बाल
उसकी व्यथा बयान कर रहे थे |
उसकी हालत देख मुझे उस पर बड़ा तरस आ रहा था | मैं उसे
लगातार देखे जा रहा था | आखिर ठण्ड में इसका गुजारा कैसे होगा ? दिमाग में ऐसे कई
सवाल कौंध ही रहे थे कि सामने से मोटर साइकिल पर एक नवयुवक आया और ठीक उस अधेड़ के
सामने रुका | मैं कुछ समझ पाता इससे पहले ही उसने अपने बैग से एक कोट निकाला और उस
अधेड़ की ओर बढ़ा दिया | अभी तक जमीन में नजरें टिकाये उस व्यक्ति ने उस युवक की ओर
आश्चर्य से देखा | ‘पहन लो पहन लो...बहुत सर्दी है...’ उस युवक ने जोर देते हुए
कहा | अधेड़ फिर भी सहमी नजरों से उसे देखता रहा | ‘घबराओ मत पहन लो...’ युवक ने
उसका डर भांपते हुए आगे बढ़ कर उसके हाथों में कोट पकड़ा दिया | कोट पाते ही अधेड़ ने
झट से बैठे बैठे ही उसे पहन लिया | मन में संतुष्टि का भाव लिये वह नवयुवक अपनी
गाड़ी मोड़ वापस लौट गया |
अभी तक उस अधेड़ की हालत पर तरस खा रहा मैं आत्मग्लानि
से भर उठा | उसकी तरफ देखने की भी हिम्मत अब मुझमें नहीं थी | अपनी और उस नवयुवक
की संवेदना में फर्क करना मेरे लिये अब मुश्किल नहीं था | अपने सहकर्मी को साथ
लेकर मैंने खुद पर शर्माते हुए गाड़ी तेजी से आगे बढ़ा दी |
Short Story by: Nitendra Verma
Date: December 10, 2016 Sunday
No comments:
Post a Comment