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Saturday, October 22, 2016

कहानी - "हार जीत"

हार जीत

पा
र्टी पूरे शबाब पर थी | श्रीधर पाठक जी सीना ताने गर्व से सब मेहमानों के सामने अपने बेटे रघुवंश की तारीफ के कसीदे गढ़ने में लगे थे | उसी की सरकारी नौकरी लगने की ख़ुशी में पाठक जी ने पार्टी दी थी | उन्हें चारों ओर से घेरे मेहमानों से मुखातिब पाठक जी बोले ‘यह जो नौकरी मिली है ना उसके पीछे मेरा निर्णय, त्याग और समर्पण है | वरना लाट साहब को तो गाने बजाने का शौक चढ़ा था | अगर इनकी बात मान ली होती तो आज कहीं टुनटुना लिये बजा रहे होते | हमारी तो नाक ही कट जाती | क्या जवाब देते परिवार वालों और मोहल्ले वालों को | अरे हमारे इतने बड़े परिवार में सब डॉक्टर इंजीनियर हैं | उनके सामने क्या इज्जत रह जाती |’ सब ने सहमति में सिर हिलाया |

पाठक जी स्वयं भी बड़े विभाग में इंजीनियर हैं | बेटा भी सरकारी इंजीनियर हो गया | उसकी सफलता का पूरा श्रेय स्वयं पाठक जी ही लेते हैं | पार्टी में आये सभी लोग बड़ी तल्लीनता से उनके त्याग और समर्पण की कहानी सुनने में लगे थे | इतने में दुबे जी बोल पड़े ‘अरे पाठक जी, अब तो बेटे की नौकरी भी लग गयी | बहू कब ला रहे हैं ?’ दुबे जी अपनी पत्नी और शादी लायक बेटी के साथ आये थे | उनकी मंशा भांप पाठक जी बोले ‘बहू भी आ जायेगी दुबे जी | एक दो साल नौकरी तो कर लेने दीजिये फिर देखिएगा मैं कैसी बहू लाता हूँ |’

nitendra,speaks,hindi stories,articles,success stories,artworkहंसी ठट्ठे का दौर जारी था | इसी पार्टी में एक कोने में चुपचाप खड़ा रघु यह सब देख रहा था | पार्टी तो उसके लिये ही रखी गयी थी लेकिन वह तो जैसे यहाँ होकर भी यहाँ नहीं था | पिताजी की बातें उसके कानों तक हल्की ही सही लेकिन पहुँच रही थीं | दिल करता था कि पूरी महफ़िल में सबके सामने उन्हें जवाब दे दे | केवल पिताजी का निर्णय, त्याग और समर्पण ही उसकी सफ़लता के कारण कैसे हो सकते हैं ? क्या उसकी मेहनत कुछ भी नहीं ? लेकिन वह चुप ही रहा | यह चुप्पी नयी नहीं थी | बचपन से लेकर आज तक वह केवल पिताजी के लिये फैसले पर ही चलता रहा | पहले उसके खिलौने, फिर उसकी पढ़ाई और उसका कैरियर सारे फैसले तो पिताजी ने ही लिये | कभी उसकी चुप्पी टूट ही नहीं पाई | किसी चीज का फैसला अपने आप नहीं लिया उसने | बस पिताजी के फैसलों का अनुसरण ही करता रहा | एक दो बार कोशिश भी की लेकिन पिताजी घर को खेल का ऐसा मैदान मानते थे जिसमें वह खिलाड़ी तो थे ही अंपायर भी वही थे |

याद है उसे जब उसने पिताजी के सामने संगीत के क्षेत्र में कैरियर बनाने की बात रखी थी | अख़बार में घुसे पिताजी ने अख़बार आँखों के और नजदीक कर लिया था | कुछ पल सन्नाटा रहा | बमुश्किल हिम्मत जुटा पाये  रघु ने दुबारा कहा तो पिताजी ने अख़बार को जोर से सामने रखी मेज पर दे मारा था | अख़बार दो फाड़ हो गया था | अख़बार का यह हाल देख रघु काँप गया | नीचे पड़ा मुड़ा तुड़ा और दोफाड़ अख़बार उसके सपनों की हालत बयां कर रहा था | पाठक जी ने रघु का दाखिला इंजीनियरिंग में करा दिया था |

रघु अकेले में सोचता रहता कि आखिर पिताजी ऐसा क्यों करते हैं | क्यों उसकी कोई बात नहीं सुनते | पिताजी भी तो उसका भला ही चाहते होंगे | लेकिन...लेकिन उसकी इच्छाओं का क्या ? क्या जिन्दगी भर वह वही करेगा जो पिताजी चाहेंगे | बेचारा मन मसोस कर रह जाता था | उसके अन्दर गहरे तक एक भय बैठ गया था | पाठक जी का भय | वह कुछ भी सोच ले करना वही था जो पाठक जी चाहते | घुट रहा था अन्दर से रघु |

पार्टी ख़त्म हो चुकी थी | सारे मेहमान जा चुके थे | पाठक जी अब फुर्सत में थे | पास पड़े सोफे पर पसरते हुए पाठक जी पत्नी से बोले ‘देखा रत्ना, सब कितना प्रभावित थे मुझसे | सबने मेरी काबिलियत का लोहा माना |’ ‘हाँ वो तो है लेकिन अपने रघु की मेहनत भी तो कम नहीं |’ रत्ना ने दबी जबान से कहा | ‘तुम्हे तो बस उसी की मेहनत दिखाई पड़ती है | अरे तुम दोनों के भरोसे छोड़ा होता तो आज सड़क पे होते हम | हीरा तो हीरा होता ही है उसमें उसकी कोई भूमिका नहीं होती असल काम और महत्त्व तो उस जौहरी का होता है जो उसे पहचानता और तराशता है | मैंने पहचाना और निखारा उसकी काबिलियत को | समझी ?’ पाठक जी खीझते हुए अन्दर चले गये | रघु भी चुपचाप अपने कमरे में चला गया |

रत्ना हमेशा ही रघु की तरफदारी करती थी | वह रघु की घुटन को समझती थी | लेकिन कहीं न कहीं वह खुद इसी घुटन का शिकार थी | उसकी घुटन की उम्र रघु की घुटन से भी लम्बी थी | इस घर में जब नयी बहू बनकर प्रवेश किया था तब बड़े अरमान हिलोरे मार रहे थे | उसे इस बात का जरा भी भान न था कि उनके अरमानों की भ्रूण हत्या होने वाली थी | खासी पढ़ी लिखी थी रत्ना | उसे बचपन से ही ऑफिस जाने का शौक था | बस एक बैग कंधे पर टांग लेती और माँ से कहती ‘माँ मैं ऑफिस जा रही हूँ’ | तब माँ उससे कहती ‘अरी पगली ऑफिस जाने से पहले पढ़ाई करनी पड़ती है | पहले पढ़ाई कर ले फिर ऑफिस भी चली जाना |’ अब जब उसने पढ़ाई पूरी कर ली तब सब कह रहे हैं कि शादी कर लो | कहाँ मानने वाले थे घरवाले | शादी करा ही दी | घरवालों ने उसे भरोसा दिलाया था कि पूरा घर पढ़ा लिखा है वहां कोई नहीं रोकेगा नौकरी करने से |

उस शाम पाठक जी के घर आते ही उसने बड़े चाव से बनाया पोहा और चाय उनके सामने रख दी | हाथ मुंह धोकर पाठक जी ने प्लेट हाथ में ली ही थी कि उनके सामने बैठी रत्ना बोल पड़ी ‘जी, मैं सोच रही थी कि...’ बात अधूरी छोड़ दी उसने | पाठक जी के पूछने पर ख़ुशी से चहकते हुए बोली ‘जी, आज अख़बार में शिक्षा विभाग में भर्ती का विज्ञापन निकला है | मैं सोच रही थी मैं भी अप्लाई...’ इतना बोलना था कि पोहे की प्लेट नीचे बिखरे अनगिनत टुकड़ों में अपना अस्तित्व ढूंढने लगी थी | अगले ही पल चाय का कप भी उन्ही टुकड़ों में घुल मिल गया | ढलान की ओर बही जा रही चाय में रत्ना को अपने अरमानों की अर्थी निकलती दिख रही थी |

उस दिन से रत्ना ने चुप्पी ओढ़ ली | बस पाठक जी के आदेशों की कठपुतली बन गयी थी | जो, जैसा और जितना वह कहते रत्ना वही, वैसा और उतना ही करती | उससे इतर जाने की हिम्मत उसमें न बची थी | रघु के होने के तीन साल बाद उसने बड़ी मुश्किल से एक और बच्चे की चाह जताई थी | लेकिन पाठक जी केवल रघु को ही रखना चाहते थे | ‘दिमाग ख़राब है तुम्हारा | एक की परवरिश ढंग से हो जाये वही बहुत है | देखना मैं रघु को क्या बनाता हूँ |’ पाठक जी के जवाब से मन मसोस कर रह गयी रत्ना |

सच में रघु की परवरिश पाठक जी ने खूब जी जान से की | उससे जुड़ा हर फैसला खुद लेते | कब और किस  स्कूल में दाखिला कराना है, कहाँ ट्यूशन लगाना है, कब जगना है, कब खेलना है, कब सोना है...यहाँ तक कि उसका टाइम टेबल भी खुद ही तैयार करते थे | शुरुआत में तो ठीक था लेकिन यह सब कब सनक में बदल गया पता ही न चला | रघु बड़ा होता गया लेकिन तब भी सारे फैसले पाठक जी ही लेते रहे | किस कोर्स में दाखिला लेना है, क्या सब्जेक्ट्स लेने हैं...सब वही तय करते रहे | वह उसकी हर सांस को अपने कब्जे में रखना चाहते थे | रघु की भी अपनी इच्छाएं थीं लेकिन पिताजी के सामने सारी इच्छायें गूंगी हो जाती थीं | पढ़ने में शुरू से ही अच्छा था रघु | हर बार क्लास में अव्वल ही आता | लेकिन इसका श्रेय उसे कभी नहीं मिला | यह तो पाठक जी की परवरिश का नतीजा था | रघु कब एकाकी होता चला गया रत्ना भी जान नहीं पाई | कभी रत्ना ने उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं देखी | उसे दोस्तों के साथ कभी नहीं देखा | शायद उसका कोई दोस्त था ही नहीं | रत्ना ने कई बार समझाने की कोशिश की लेकिन वह खूब जानती थी कि बुझता दीया दूसरे दीये को रोशन नहीं कर सकता |

ख़ुशी से झूम उठे थे पाठक जी रघु के नौकरी मिलने का समाचार पाकर | जब से रघु साक्षात्कार देकर आया पाठक जी खासे तनाव में थे | असल में वह रघु का नहीं बल्कि उनका खुद का इम्तिहान था | सालों की मेहनत का इम्तिहान | समाचार मिलते ही सारे घरवालों को, नाते रिश्तेदारों को, दोस्तों को फोन कर खुशखबरी दे डाली | मोहल्ले के एक एक घर में खुद गये मिठाई बाँटने | अपनी जीत का ठिंठोरा जो पीटना था | यह जीत थी उस जौहरी की जिसने हीरे को पहचाना और तराशा था | हां तराशा हुआ हीरा अभी तक अपने कमरे के कोने में चुपचाप पड़ा था | उसे तो इस बात की भनक भी न थी | पाठक जी ने उसे बताना जरूरी भी नहीं समझा | पाठक जी के बाहर निकलते ही रत्ना रघु के कमरे में गयी | शून्य में डूबा रघु माँ को देख कुछ हरकत में आया | रत्ना उसके सिरहाने बैठ मुस्कुराते हुए बोली ‘बेटा, खुशखबरी है | तुम्हारी मेहनत कामयाब रही | तुम्हे नौकरी मिल गयी | इंजीनियर बन गये तुम |’ भावहीन चेहरा लिये रघु दीवार को निहारता हुआ बोला ‘नहीं माँ, इस कामयाबी के असली हक़दार तो पिताजी हैं | मैंने क्या किया है |’ उसके चेहरे पर कोई भाव न देख रत्ना कुछ घबरा गयी थी |

रघु के नौकरी के दो साल निकल चुके थे | पाठक जी अब कोई अच्छी सी लड़की और घर परिवार देख उसकी शादी कर देना चाहते थे | हालाँकि रिश्ते तो एक से एक आये लेकिन उन्हें अभी तक कोई भाया नहीं था | उन्हें खास जल्दी भी नहीं थी | देख परख कर ही रिश्ता करना चाहते थे आखिर रघु की जिन्दगी का सवाल था | उस रात खाने की मेज पर पाठक जी और रघु बैठे ही थे कि खाना लगा रही रत्ना परेशान हो उठी | रघु बेहद तनाव में लग रहा था | उसके माथे की कोरों से पसीना बहकर ठुट्ठी तक आ रहा था | जबड़ा खिंचा हुआ था | हमेशा शांत रहने वाला रघु आज इतना परेशान क्यों था ? रत्ना बेचैन हो गयी | रघु को ऐसे तो कभी नहीं देखा |

‘पिताजी, मुझे आपसे कुछ बात करनी है...’ हकलाते हुए रघु ने मेज की ओर नजरें गड़ाये हुए ही कहा | रत्ना के साथ पाठक जी की नजरें भी आश्चर्य से रघु पर गड़ गयीं | ‘मैं एक लड़की को पसंद करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ |’ एक साँस में रघु अपनी बात कह गया | सन्नाटा छा गया | पाठक जी की नजरें अभी तक रघु पर गड़ी थीं | भय के मारे नजरें झुकाये रघु की ठुट्ठी गर्दन से चिपक गयी थी | रत्ना ने पाठक जी के चेहरे को गौर से देखा...थरथराते गाल, कसे होंठ, आग उगलती आखें | अनहोनी की आशंका से वह काँप उठी | इससे पहले कि वह खाना लगाती पाठक जी उठ चुके थे | उनके उठते ही रघु भी तेजी से अपने कमरे में घुस गया | यह रघु का प्रतिकार था | कुर्सी पर निढाल पड़ी रत्ना ने रघु की ऐसी प्रतिक्रिया कभी नहीं देखी थी | कांपते मन के एक कोने में ख़ुशी की किरण भी फूट रही थी | आखिर रघु को बोलना आ गया |

पाठक जी को सदमा लगा | जुबान सिल सी गयी | सारा दिन कमरे में बंद पड़े रहे | किसी से कोई बात नहीं | खाना तक नहीं खाया | बस पलंग पर लेटे दीवार निहारते रहे | रत्ना में उन्हें बुलाने की हिम्मत न थी | चुपचाप खाने की थाली रख चली गयी | पाठक जी ने उसे छुआ तक नहीं | घंटे भर बाद रत्ना फिर कमरे में आई | थाली वैसे ही रखी थी | वह बिना कुछ कहे थाली उठा ले गयी | एक रहस्यमय भय उसे अन्दर तक कंपा दे रहा था | आखिर इतने सालों में पहली बार किसी ने उनके सामने अपनी जबान खोली थी |

रात के खाने का समय हो चुका था | न तो पाठक जी और न ही रघु खाने के लिये मेज पर आये थे | रत्ना ने खाने की दोनों थालियाँ लगा दीं | थाली लेकर वह पाठक जी के पास जा ही रही थी कि पाठक जी स्वयं बाहर आ गये | यह देख रत्ना को बड़ी राहत मिली | झट रघु को बुला लायी | कल रघु अपनी बात कह तो गया लेकिन अभी तक सहमा हुआ था | क्या आज पिताजी अपना फैसला सुना देंगे ? क्या हमेशा की तरह उन्ही की जीत होगी ? ऐसे तमाम उमड़ते घुमड़ते सवालों के बीच रघु ने पहला निवाला मुंह में डाला | पाठक जी ने भी खाना शुरू कर दिया था | रत्ना वहीँ बैठी दोनों के चेहरों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी | उसे लग रहा था कि पाठक जी कुछ कहना चाह रहे हैं | पाठक जी बोले और ऐसा बोले कि कानों पर सहसा विश्वास न हुआ | रघु के हाथों से तो चम्मच ही छूट गया | क्या रघु जो सुन रहा था वो सच था...’मुझे लड़की के घर वालों से मिलना है’ पाठक जी के ये शब्द उसने मन ही मन दोहराये | ख़ुशी से उसके मुंह से बस इतना ही निकला ‘जी पिताजी’ |

रत्ना को याद नहीं पड़ता कि इससे पहले उसने रघु के चेहरे पर मुस्कान कब देखी थी | रघु ने जल्दी से खाना ख़त्म किया और अपने कमरे में चला गया | उतावला हो रहा था सरिता से यह बताने को | लेकिन बेचारा कल ही बता पायेगा | उसके घर में केवल एक ही फोन है | मोबाइल से पिताजी को सख्त चिढ़ थी | वह इसे प्रगति में बाधक मानते थे | नौकरी लगने के बाद भी वह एक अदद मोबाइल फोन न ले सका था | कल ऑफिस जल्दी निकलेगा | उसके ऑफिस में ही तो काम करती थी सरिता | रघु ने कभी सरिता से बात करने की कोशिश नहीं की थी | वह तो सरिता ही जब तब उससे कुछ न कुछ पूछती रहती थी | बातों बातों में कब लंच साथ करने लगे पता नहीं चला | उसे भी सरिता से बातें करना अच्छा लगने लगा था | सरिता बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनती और टकटकी लगाकर उसे देखती रहती | सरिता ही उसकी पहली दोस्त थी | वह अपना हर एहसास उसके साथ बाँट लेना चाहता था | सिलसिला बातों से होता हुआ ऑफिस की कैंटीन और फिर साथ घूमने फिरने तक जा पहुंचा | जिन्दगी इतनी खूबसूरत हो सकती है इसका उसे रत्ती भर भी भान न था |

उस दिन ऑफिस ख़त्म करके दोनों पार्क में घूमने निकल गये | दोनों एक दूसरे के सिर से सिर जोड़े पेड़ की ओट में बैठे थे | बातों बातों में सरिता ने रघु की हथेली में अपनी हथेली रख दी | उँगलियों में उँगलियाँ फंसा कर बोली ‘रघु क्या हमेशा मेरे साथ ऐसे ही रहोगे ?’ रघु अचकचाते गया ‘मतलब ?’ ‘अरे बुद्धू जो बात तुम्हे कहनी चाहिये वो लड़की कह रही है फिर भी...जाओ मैं नहीं बोलती’ नाराजगी जताते हुए सरिता उठ कर सामने पड़ी बेंच में बैठ गयी | रघु भी बेंच पर बैठ गया | उसने हौले से सरिता की उजली हथेली को हाथ में लिया और अपने दिल की कलम में जज्बातों की स्याही भरकर उसकी हथेली पर लिख दिया ‘हां’ | सरिता की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | ख़ुशी के मारे रघु को गले से लगा लिया | दुनिया का होश आते ही खुद को संभाल लिया | काफी देर दोनों निःशब्द बैठे रहे | दोनों ने तय किया कि अपने अपने घर वालों से बात करेंगे |

अगले दिन रघु जल्दी ही ऑफिस पहुँच गया | देखा तो सरिता पहले से ही वहां बैठी थी | ‘पिताजी तुम्हारे घर वालों से मिलना चाहते हैं’ उसके पास पहुँचते ही बोल पड़ा | ‘तुम तो कह रहे थे कि पिताजी मानेंगे ही नहीं’ सरिता ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा | ‘हां, पता नहीं कैसे मान गये ? मैं खुद हैरान हूँ |’ रघु ने आश्चर्य जताते हुए कहा | ‘तुम बताओ तुम्हारे घरवालों ने क्या कहा ?’ रघु ने पूछा | सरिता फिर मुस्कुरायी ‘होना क्या है, मेरी पसंद घर वालों की पसंद | वैसे भी मुझसे जुड़े सारे फैसले मैं खुद लेती हूँ |’ ‘किस्मत वाली हो’ रघु ने कुछ इर्ष्या से कहा | सरिता ने तुरंत ही घर फोन कर माँ को खुशखबरी दे दी | कल का दिन मिलने के लिये तय हो गया | कल सुबह ही सरिता के मम्मी पापा रघु के घर जायेंगे | रघु के तो रोंगटे ही खड़े हो गये | रघु ने सरिता को देखा तो वह शर्म से ऑंखें झुका कर अँगुलियों से अपने कंगन घुमाने लगी |

अगले दिन दोनों का मन काम में नहीं लग रहा था | बेचैन थे दोनों | किसी आशंका मात्र से रघु सिहर जाता | बैठे बैठे ही कितनी बार कांपा गया था आज | सोच रहा था कितनी जल्दी घर पहुँच जाये | पिताजी मानेंगे या फिर हर बार की तरह इसमें भी अपनी ही जीत ढूढ़ें निकालेंगे | रघु से रहा नहीं गया | सिर दर्द का बहाना बना कर दो घंटे पहले ही निकल गया | घर में आज भी हमेशा की तरह डरावना सा सन्नाटा था | रघु चेंज करके सीधे माँ के कमरे में गया | ‘सरिता के मम्मी पापा आये थे माँ?’ रघु ने घुसते ही पूंछा | ‘हां’ कपड़ों को तहने में जुटी रत्ना ने बिना उसकी तरफ देखे ही जवाब दिया | ‘क्या कहा पिताजी ने?’ रघु ने तुरंत दूसरा सवाल दागा | रत्ना काम छोड़ कर रघु की आँखों में प्रश्नवाचक आँखों से देखने लगी | ‘आज तक तेरे पिताजी ने कभी मुझसे पूछकर कोई निर्णय लिया है या कभी अपने मन की कोई बात बताई है ? तू तो जानता है कि फैसला केवल एक ही आदमी को करना है |’ असहाय रत्ना ने बुझे हुए शब्दों में कहा | रघु चुपचाप अपने कमरे में वापस चला गया | पिताजी से पूछने की हिम्मत उसमें नहीं थी |

खाना लग चुका था | रत्ना ने रघु को आवाज लगा दी | रघु को लगा पिताजी अब जरूर बतायेंगे | उसका दिल बेचैन था | धीमे क़दमों से आकर पिताजी के ठीक सामने बैठ गया | उसके कान कुछ सुनने के लिये पहले से एकदम तैयार हालत में थे | खाना ख़त्म होने को था लेकिन पिताजी के मुँह से एक शब्द भी नहीं फूटा था | रघु की बेचैनी अब निराशा में बदलने लगी थी | वह बीच बीच में चोर नजरों से पिताजी की ओर देखता कि शायद अब वह मुँह खोलेंगे और कुछ बोलेंगे लेकिन खाना ख़त्म हो गया और वह कुर्सी से उठकर चले भी गये | उसके कान तरसते ही रह गये | उसका दिल बैठ सा गया | आधा खाना छोड़कर वह निराश मन से अपने कमरे में चला गया | अन्दर घुसते ही वह बिस्तर पर औंधे मुंह लुढ़क गया | उसे अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा | उसके जीवन में आयी सरिता रुपी रोशनी उसे बुझती नजर आई | उसके बिना उसका जीवन बेकार हो जायेगा | आज तक वही तो है जो उसे समझ सकी है, उसकी भावनाओं की कद्र कर पायी है | उसके बिना कैसे रह पायेगा...कैसे...आंसुओं की धारा बह चली | फूट फूट कर रोया रघु | गीले चेहरे के साथ बिस्तर भी उसके टूटे अरमानों की गवाही दे रहा था | रह रह कर आखों की कोरों से आंसू ढलकते रहे | अचानक रघु उठ बैठा | हाथों से आंसू पोंछ डाले | डूबते उतराते दिल को कड़ा किया | अन्दर से आवाज आयी ‘नहीं, वह अपनी जिन्दगी को खुद से दूर नहीं जाने देगा | मेरी जिन्दगी का हर फैसला दूसरा नहीं ले सकता | यहाँ मेरी मदद कोई और नहीं कर सकता | मुझे अपनी मदद खुद करनी होगी | मुझे पिताजी को अपना फैसला बताना होगा |’ उसके भीतर कहीं गहरे तक मूर्छित अवस्था में दबा कुचला बैठा आत्मसम्मान जाग उठा |

रघु ने मुंह धोया और पिताजी के कमरे की ओर मुखातिब हो गया | वह कमरे से निकल ही रहा था कि माँ सामने आ गयीं ‘रघु, तुझे पिताजी बुला रहे हैं |’ रघु द्रढ़ता से बोला ‘उन्ही के पास जा रहा हूँ |’ यह सुनकर रत्ना का मुंह खुला रह गया | रघु के तेज क़दमों के पीछे पीछे वह भी चल दी | ‘आओ बैठो’ कमरे में घुसते ही पिताजी के इन शब्दों से रघु के अन्दर खौल रहा ज्वालामुखी कुछ ठंडा पड़ा | ‘आज सरिता के घर वाले आये थे...’ रघु के बैठते ही पिताजी बोल पड़े | रघु पूरे ध्यान से सुन रहा था | आज पहली बार उसकी ऑंखें इधर उधर घूमने के बजाय सीधे पिताजी के चेहरे की ओर देख रही थीं | ‘...लेकिन रघु मैंने फैसला किया है कि तुम्हारी शादी वहां नहीं हो सकती’ पिताजी ने बात पूरी की | ‘लेकिन क्यों ?’ रघु ने सवाल दागा...शायद अपने जीवन में पहली बार | उसकी आवाज में झुंझलाहट थी | पाठक जी चौंक पड़े | इस सवाल के लिये वह तैयार नहीं थे | कुछ रुक कर बोले ‘मैंने बहुत सोच समझ कर ही ये फैसला लिया है | ये लड़की तुम्हारी जीवन संगिनी बनने लायक नहीं है |’ ‘वजह आपने अब भी नहीं बतायी’ रघु के मुंह से ये बात सुनकर पाठक जी हिल गये | उसकी ओर देखा, रघु की ऑंखें उनके चेहरे पर गड़ी थीं | ‘सुनना चाहते हो ?’ पाठक जी थोड़ा गुस्से से बोले | ‘हाँ’ रघु उठकर दरवाजे के पास खड़ा हो गया | पाठक जी भी तन्नाकर उठ खड़े हुए | ‘सरिता की मम्मी के परिवार की सारी औरतें शादी के बाद श्वांस रोग का शिकार हो जाती हैं | उसकी माँ, उसकी नानी, परनानी सब...वंशानुगत रोग है इनमें | और मैं नहीं चाहता कि तुम जिन्दगी भर एक रोगी को ढोते फिरो | समझे...’ लगभग चीखने लगे थे पाठक जी | ‘जीवन में किसे कब कौन सी बीमारी हो जायेगी ये कौन जानता है ? माँ को भी तो शुगर की समस्या है | अपने घर में तो किसी को नहीं थी फिर उन्हें कैसे हो गया ? बाकियों को हुआ तो सरिता को हो जायेगा ये जरूरी तो नहीं |’ आखिरकार ज्वालामुखी फट पड़ा | पाठक जी गुस्से से लाल हो चुकी आँखों से रघु को घूरते हुए बोले ‘मैं पूंछता हूँ क्यों नही हो सकता ?’ ‘और मैं पूंछता हूँ क्यों हो सकता है ?’ रघु ने सवाल के बदले में सवाल दाग दिया | ‘क्यों नहीं’ ‘क्यों’... दोनों सवाल के बदले सवाल करते रहे | लेकिन शायद इस सवाल का जवाब दोनों के ही पास नहीं था | ‘तेरी इतनी हिम्मत कि मुझसे सवाल करता है...’ पाठक जी ने रघु के ऊपर हाथ तान दिया | ‘पिताजी यह आपसे मेरा पहला और आखिरी सवाल था | मुझे जीवन में केवल एक ही चीज मिली जिसने मुझे सही मायनों में ख़ुशी दी है, वह है सरिता | असल में वह मेरी जिन्दगी है और मैं उसे दूर नहीं जाने दूंगा....हर बार आपकी ही जीत हो ये जरूरी नहीं |’ इतना कहकर रघु धड़धड़ाता हुआ कमरे से निकल गया | पाठक जी का शरीर जम सा गया | कान सुन्न पड़ गये | पलकें झपकना भूल गयीं | धम्म से बेड पर बैठ गये | दरवाजे की ओट से सब सुन रही रत्ना को एक तरफ अजीब सी ख़ुशी महसूस हो रही थी वहीं दूसरी तरफ किसी अनहोनी की आशंका से दिल की धडकनें तेज हो गयी थीं |  

अगले दिन ऑफिस में रघु ने सरिता के सामने सारी बात रख दी | ‘पिताजी तो मानेंगे नहीं हां अगर तुम तैयार हो तो हम बाहर रह सकते हैं’ सरिता का हाथ पकड़ रघु ने पूछा | ‘कब ले चल रहे हो मुझे अपनी सपनों की कुटिया में?’ सरिता ने शरारती मुस्कान बिखेरते हुए कहा | ‘जब तुम कहो’ रघु ने उसके हाथ को और कस के पकड़ लिया | ‘तुम्हारे बिना तो एक पल भी रहना मुश्किल होता है अब | मुझे जल्दी से अपने पास ले चलो ना’ सरिता ने अपनी बचैनी बयां कर दी | उसी दिन सरिता की एक सहेली ने उसे ऑफिस के पास ही कमरा भी दिला दिया | सरिता ने अपने घर वालों को भी बता दिया | वाकई ख़ुशनसीब थी वो, उसके माँ बाप हर कदम पर उसके साथ थे |

शाम को रघु खाने के लिये हॉल में आ गया | पाठक जी सामने बैठे थे | रघु ने एक नजर उन पर दौड़ाई | चेहरा आज बाकी दिनों से बड़ा लग रहा था | मेज घूरती लाल ऑंखें | लेकिन आज पहली बार उसे अपने पिताजी से डर नहीं लग रहा था | रत्ना खाना लगाकर वहीँ बैठ गयीं | खाना शुरू करने के साथ ही रघु बोला ‘कल मैं और सरिता शादी करने जा रहे हैं | अगर आप लोग तैयार हों तो...’ बात पूरी होने से पहले ही पाठक जी के सामने रखी प्लेटें, कटोरियाँ, गिलास एक झटके में मेज के नीचे पहुँच गयीं | नीचे पहुँचते ही उनकी इहलीला समाप्त हो गयी | कौन सा टुकड़ा किसका है पहचानना असंभव था | पाठक जी ने अंगुलियों को मुट्ठी में जकड़कर एक जोरदार मुक्का मेज पर दे मारा | मेज में रखी बाकी सारी चीजें काँप उठीं | पाठक जी गुस्से से खुद भी कांपने लगे | तमतमाते हुए कमरे में घुस गये | रघु को ऐसे जवाब की ही अपेक्षा थी | उसने माँ को एक नजर देखा फिर उठकर अपने कमरे में चला गया | रत्ना के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था | कुछ सोच भी नहीं पा रही थी |       

अगली सुबह रघु जल्दी ही उठा | नहा धोकर अपना बैग पैक किया | ‘माँ, मैं जा रहा हूँ’ माँ के कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए उसने कहा | रत्ना हड़बड़ाते हुए बिस्तर से उठ कर बोलीं ‘इतनी सुबह कहाँ जा रहा है बेटा?’ ‘मुझे जाने दो माँ मेरी मंजिल मेरा इंतजार कर रही है’ रघु ने माँ के पैर छूते हुए कहा | रत्ना का कलेजा धक्क रह गया | वह रघु से कुछ कहना चाहती थी उसे रोकना चाहती थी लेकिन जैसे आवाज ही गुम हो गई | रघु पलटा और एक नजर पाठक जी के कमरे की ओर डालकर तेजी से घर के बाहर निकल गया | रत्ना अवाक् निर्जीव सी आगे हाथ बढ़ाये उसे जाते देखती रही |
    
आखिर आज वह दिन भी आ गया जिसका रघु और सरिता दोनों को बेसब्री से इंतजार था | सारी तैयारियां हो चुकी थीं | पंडित जी समय से आ गये थे | सरिता के माँ बाप सुबह से ही जुटे थे | शहर के बड़े मंदिर में रघु और सरिता एक दूसरे के सामने वरमाला लिये खड़े थे | मंत्रोच्चार के बीच दोनों ने एक दूसरे को माला पहना दी | दोनों ने अग्नि को साक्षी मानकर सातों फेरे लिये | विवाह संपन्न हो चुका था | दोनों ने सरिता के मम्मी पापा के पैर छूकर आशीर्वाद लिया | ‘रघु बेटा, मुझे लगता है तुम दोनों को अपने माँ बाप से भी आशीर्वाद लेना चाहिए | नयी जिन्दगी की शुरुआत बड़ों के आशीर्वाद से हो जाये तो तमाम विघ्न दूर हो जाते हैं’ सरिता के पापा दोनों को आशीर्वाद देते हुए बोले | ‘जब वो हमारी शादी के ही खिलाफ़ हैं तो आशीर्वाद देना तो दूर की बात है’ रघु ने अनिच्छा व्यक्त करते हुए कहा | ‘लेकिन बेटा हो सकता है सरिता जैसी प्यारी बहू देखकर उनका दिल भी पिघल जाये | आखिर वो भी तो एक बाप हैं’ इस बार रघु की सास बोलीं | ‘बाप का दिल होता तो हमेशा हन्टर लिये ना घूमते’ रघु ने अपने पिता के प्रति अपना गुस्सा जाहिर किया | इस बार सरिता रघु का हाथ पकड़ कर बोली ‘पिताजी आशीर्वाद नहीं देंगे तो क्या हुआ माँ का आशीर्वाद तो मिल जायेगा | इन सबमें माँ की क्या गलती है | उन्हें उस गलती की सजा नहीं मिलनी चाहिये जो उन्होंने की ही नहीं...अब ज्यादा मत सोचो, अपने घर चलो |’ आखिरी शब्दों में उसकी ज़िद साफ़ झलक रही थी |

सबकी बात मानकर रघु सरिता को अपने घर ले गया | सरिता शादी के जोड़े में ही घर चली आई | माँ ने दरवाजा खोला | सामने रघु और सजी धजी सरिता को देख रत्ना की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | अगले ही पल किसी आशंका से हिल गयी | दोनों को अंदर करके उसने दरवाजा बंद कर लिया | सरिता ने झुककर रत्ना के पैर छूए | अगले ही पल रघु भी माँ के पैरो में झुक गया | भावुक रत्ना ने दोनों को अपने सीने से लगा लिया | सीने से लगते ही उसकी सूखी आँखों से आंसू फूट पड़े | उसने हौले से सरिता का घूंघट उठाया | चाँद सी चमक वाली बहू पाकर निहाल हो उठी रत्ना | झट अपनी आँखों से काजल निकाल उसके गालों पर टीका लगा दिया | उसकी नजर सरिता से हट ही नहीं पा रही थी | जी भरकर देख लेना चाहती थी उसे | ‘माँ माँ...’ रघु की आवाज से रत्ना का ध्यान भंग सा हुआ | सामने देखा पाठक जी खड़े थे | रत्ना ठिठक कर पीछे खड़ी हो गई | पाठक जी खड़े रत्ना को घूर रहे थे | रघु और सरिता एक साथ उनकी ओर बढ़े | दोनों उनके पैर छूने के लिये एक साथ झुके | लेकिन यह क्या.....एक जोरदार आवाज....और फिर पूरे घर में सन्नाटा...रघु एक किनारे पड़ा अपने गाल पर हाथ रखे सहला रहा था | पाठक जी का झन्नाटेदार थप्पड़ छप गया था रघु के गाल पर | आशीर्वाद के बदले मिले थप्पड़ से रघु संभल नहीं सका और उसके साथ सरिता की और सरिता के घर वालों की उम्मीदें भी फ़र्श पर पड़ी दम तोड़ने लगीं | थप्पड़ की गूँज से अभी तक रघु के कान सनसना रहे थे | सरिता सहम कर सिकुड़ गयी | पाठक जी के इतने पास खड़ी थी कि थरथराने लगी | उसे खुद पर गुस्सा आने लगा | वही तो जबर्दस्ती लायी थी रघु को यहाँ |

थोड़ी देर बाद रघु संभल कर खड़ा हुआ | सरिता का हाथ पकड़ा और चलने का इशारा किया | सरिता भी वहां से जल्दी से निकल जाना चाहती थी | दोनों दरवाजे तक पहुंचे ही थे कि अचानक सरिता रघु का हाथ छुड़ा कर वापिस मुड़ी और रत्ना के पैर छू लिये | रत्ना में अब आशीर्वाद देने की भी ताकत नहीं बची थी | बस देखती रही | पैर छूकर सरिता तुरंत रघु के पास दौड़ पड़ी | दम घुट रहा था उसका यहाँ | दोनों बाहर निकल गये अपनी नयी दुनिया में एक नयी जिन्दगी की शुरुआत करने...

आज रघु की शादी को चार साल हो गये थे | रत्ना को खूब याद था वो दिन | हर साल इस दिन वो अपने भगवान से रघु और सरिता के लिये ढेर सारी खुशियाँ मांगती | सारा दिन व्रत रखती | उसके मन में बड़ा संतोष था कि रघु अपनी जिन्दगी जी रहा था | उसने रत्ना की तरह जिन्दगी भर समझौता नहीं किया | परसों ही एक रिश्तेदार रत्ना के यहाँ आये थे | बता रहे थे कि सरिता को बेटी हुई है | रत्ना का मन झूम उठा | लेकिन इस ख़ुशी को उसे मन में ही रखना था | गलती से भी यह ख़ुशी उसके मन से बाहर टपकी तो आफ़त आ जायेगी | वैसे भी जब से रघु यहाँ से गया है न तो उसने कोई खोज खबर ली और न पाठक जी ने | पाठक जी को तो उसके जाने से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा | फर्क पड़े भी क्यों ? नवाबी दिखाने के लिये रत्ना थी ना |  

साल दर साल गुजरते गये | रत्ना अब बेहद कमजोर हो चुकी थी | हड्डियों का ढांचा भर रह गयी थी | बस रघु को याद कर मन ही मन रोया करती | लेकिन पाठक जी की अकड़ में रत्ती भर भी कमी नहीं आई थी | अचानक एक दिन ऐसी खबर आई जिसने रत्ना को हिला कर रख दिया | रघु और सरिता दोनों की ही तबियत ख़राब थी | दोनों अस्पताल में भर्ती थे | शायद कोई गंभीर बीमारी थी | सुनते ही रत्ना दहाड़े मार कर रो पड़ी | उसकी ममता जाग उठी | वह पाठक जी के पैरों में गिर पड़ी | ‘मुझे मेरे रघु के पास ले चलो...भीख मांगती हूँ आपसे..ले चलो मुझे...’ गिड़गिड़ाने लगी रत्ना | पाठक जी अब भी न पसीजे | उनके होंठों पर एक विजयी मुस्कान थी | खुद पर इतराते हुए से बोले ‘मैंने तो पहले ही कहा था | अब भुगते नतीजा | खुद तो मरेगी रघु को भी नहीं छोड़ेगी | उसके दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया था चुड़ैल ने | अपने फैसले खुद करने चले थे | देख लिया परिणाम !’ पाठक जी को दुःख से ज्यादा इस बात की ख़ुशी थी कि हमेशा की तरह उनका फैसला सही था |

पाठक जी को न मानना था न वो माने | रत्ना का रोना गिड़गिड़ाना सब बेकार | बेटे के गम में बेचारी ने खाना पानी सब त्याग दिया | उसकी आँखों से दिन रात आंसू झरते रहते | आखिर दो दिन बाद पाठक जी माने | शायद यह सोचकर कि कहीं मर मरा न जाये | ‘अच्छा चलो देख आते हैं रघु को’ पाठक जी की बात सुनकर भी रत्ना ने अनसुनी कर दी | ‘चलो रोना धोना बंद करो तैयार हो जाओ’ इस बार रत्ना ने देर नहीं लगायी | कमरे में जाकर जल्दी से तैयार हो गयी |

अस्पताल में सरिता के मम्मी पापा मौजूद थे | पाठक जी और रत्ना को वहां देख दोनो आगे बढ़े | पाठक जी पीछे ही ठहर गये | रत्ना खुद को रोक न सकी साड़ी का पल्लू मुंह में दबाकर वहीं सुबकने लगी | सरिता की माँ ने उन्हें उन्हें ढांढस बंधाया | रत्ना उनसे चिपक कर बस रोये जा रही थी | सरिता की माँ ने किसी तरह उन्हें चुप कराया | अपने हाथों से उनके आंसू पोंछे | ‘इतने सालों बाद बच्चों से मिल रही हैं रोनी सूरत लेकर जाएँगी अच्छा लगेगा...’ सरिता की माँ रत्ना को समझाते हुए बोलीं | ‘वैसे भी डॉक्टर ने कहा है कि अब दोनों ठीक हैं चिंता की कोई बात नहीं है...अब तो उन्हें बस हमारे प्यार और सहारे की जरुरत है...’ सरिता की माँ रत्ना को समझाते हुए अन्दर ले गयीं | अब तक दूर ही खड़े पाठक जी के पास सरिता के पापा खुद गये और उनका हाथ पकड़ कर अन्दर ले गये | पाठक जी को जैसे लकवा मार गया हो वह उनका कोई विरोध नहीं कर पाए | बस खिंचे से अन्दर चले गये | जैसे किसी ने उन्हें सम्मोहित कर लिया हो |

रत्ना और पाठक जी अन्दर पहुँच गये | रघु मरीजों वाले कपड़े पहने बेड पर लेटा था | कलाई में ड्रिप लगी थी | कमीज के अन्दर से एक ट्यूब बाहर निकली थी | बगल में बड़ी बड़ी अजीब सी मशीनें रखी थीं | जिन पर कुछ लाइनें बार बार उतर चढ़ रहीं थीं | नर्स ड्रिप में दो तीन इंजेक्शन लगा कर अभी अभी बाहर गयी थी | रत्ना ने झटके में एक नजर रघु पर डाली | हाय रे...सूख के आधा रह गया है उसका रघु...मुरझाये चेहरे पर हड्डियाँ उभर आई हैं..कलाई से तो जैसे मांस ही निकाल दिया गया है...माँ को देखते ही रघु उठने को हुआ लेकिन अब तक खुद को रोके रत्ना ने झुक कर उसके माथे को चूम लिया | इसके बाद उसके आँखों से निकली अश्रुधारा ने रघु के चेहरे को भिगो दिया | ‘क्या हो गया बेटा तुझे? अपनी माँ से भी नहीं बताया...मैं भी परायी हो गयी तेरे लिये...तेरी ऐसी हालत की जिम्मेदार मैं हूँ ना बेटा...क्या जिन्दगी है मेरी...पति साथ रहकर भी साथ नहीं और बेटा साथ होकर भी साथ नहीं...थक गयी हूँ मैं...इतनी घुटन इतना बोझ उफ़्फ़...नर्क भी इससे क्या बुरा होगा...हे भगवान वहीँ भेज दे मुझे...’ रोती बिलखती रत्ना ने अपना सिर दीवार पर दे मारा | सरिता की मम्मी ने उन्हें संभाला |

रघु ने हाथ से माँ के आँसू पोंछ दिये | ‘तुम इसकी जिम्मेदार कैसे हो सकती हो माँ ? हम दोनों तो एक ऐसे पेड़ के साये में पल रहे थे जो अपनी जड़ें फ़ैलाने के लिये हमें भी उखाड़ देना चाहता था | इसमें तुम कहाँ दोषी हैं माँ !’ रघु धीमी आवाज में पाठक जी की ओर देख कर बोला | अब तक जड़वत खड़े पाठक जी कुछ असहज हो गये | ‘मुबारक हो पिताजी, आप सही थे | सही कहा था आपने, शादी के बाद बीमारी होगी | बीमारी तो हुई... बस भविष्यवाणी में आपसे जरा सी चूक हो गयी | बीमारी सरिता को नहीं बल्कि मुझे हुई | दोनों किडनियां ख़राब हो गयीं थीं मेरी | डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था | लेकिन मालूम है पिताजी...रोगी परिवार से जुडी सरिता ने अपनी एक किडनी मुझे दान दे दी...’ कहते कहते रघु का गला भर्रा गया | आज तक सब कुछ अपने ही आईने से देखते आ रहे पाठक जी को रघु ने अपना आईना दिखाया था | पाठक जी चाह कर भी उस आईने के सामने अपना चेहरा उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे | खुद को संभाल कर रघु फिर प्रश्नवाचक मुद्रा में बोला ‘पिताजी, अपने घर में तो आज तक किसी को किडनी की बीमारी नहीं हुई फिर मुझे क्यों...आपको तो जरूर मालूम होगा ?’ अब तक पाठक जी के चश्मे के पीछे छुपे आंसू धार मार कर बह निकले | दीवार की ओट में मुंह छुपाकर आखिरकार बोले ‘बस कर बेटा बस कर...मैं गुनाहगार हूँ तुम्हारा...तुम्हारी माँ का | जिम्मेदारियां निभाते निभाते मैं भूल गया था कि मैं किसी का बाप हूँ किसी का पति हूँ | मुझे लगने लगा था कि केवल मैं सही हूँ...मेरे फैसले सही हैं...तुम लोगों की खुशियों की कभी परवाह ही नहीं की...इतना खुदगर्ज हो गया कि तुम लोगों की परेशानियों में मुझे अपना सुख नजर आने लगा था | यहाँ तक कि सरिता के बीमार होने की खबर पाकर भी मुझे एक सुकून सा मिला...माफ़ी के लायक तो नहीं, हाँ सजा जो देना चाहो मुझे मंजूर है...’ हाथ जोड़े पाठक जी रघु और रत्ना के सामने निरीह से खड़े हो गये |

पाठक जी को इतना दीन हीन दोनों ने कभी नहीं देखा था | उनकी आँखें अब तक डबडबा रहीं थीं | ‘आप लोगों का भी मैं उतना ही गुनाहगार हूँ जितना इनका...’ पाठक जी उसी मुद्रा में सरिता के माँ बाप के सामने भी  खड़े हो गये | सरिता के पापा ने उन्हें गले से लगा लिया | पाठक जी रघु के सिरहाने बैठ गये और उसके बालों को सहलाने लगे | रघु ने उन्हें जी भर कर देखा | एक गुनगुना सा एहसास हो रहा था उसे...जीवन में पहली बार | ’रिश्तों में जीत या हार नहीं होती पिताजी...उसमें तो बस प्यार और विश्वास होता है’ रघु हौले से बोला | पाठक जी ने धीरे से सिर हिलाया | अपनी पोती को गोद में लिये रत्ना तो बस रोये ही जा रही थी | अब वह खुल कर साँस ले पा रही थी | थोड़ी देर में पाठक जी बोले ‘बेटा सरिता कैसी है ?’ ‘ठीक है पिताजी | बस थोड़ी कमजोरी है | कुछ दिन यहीं अस्पताल में रहना पड़ेगा | घबराने की बात नहीं है’ रघु ने जवाब दिया | पाठक जी उठ खड़े हुए ‘बेटा, मुझे अपनी बहू से मिलना है...’ | सरिता के पापा का हाथ पकड़ पाठक जी ने धीमे क़दम अपनी बहू के कमरे की ओर बढ़ा दिए |


Story by: Nitendra Verma






3 comments:


  1. वाह वाह ........
    सच में रघु की परवरिश पाठक जी ने खूब जी जान से की | उससे जुड़ा हर फैसला खुद लेते | कब और किस स्कूल में दाखिला कराना है, कहाँ ट्यूशन लगाना है, कब जगना है, कब खेलना है, कब सोना है...यहाँ तक कि उसका टाइम टेबल भी खुद ही तैयार करते थे |..........ये बंधन युक्त पुत्र प्रेम को दर्शाता है |


    रघु द्रढ़ता से बोला ‘उन्ही के पास जा रहा हूँ |’............... व .............रघु ने एक नजर उन पर दौड़ाई | चेहरा आज बाकी दिनों से बड़ा लग रहा था | मेज घूरती लाल ऑंखें | लेकिन आज पहली बार उसे अपने पिताजी से डर नहीं लग रहा था |............ स्प्रिंग को जितना दबाया जाय उतना ही ज्यादा उछल मरता है| रघु के अन्दर अब सहन शक्ति नहीं रही|...........बात विचारणीय है


    आदरणीय नितेंद्र वर्मा जी जीवन के हर पहलू को उजागर करती हुई बहुत ही सुन्दर व मार्मिक कहानी हेतु साधुवाद |

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    1. आदरणीय बैजनाथ शर्मा जी आपके इस कमेंट हेतु बहुत बहुत धन्यवाद...

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