पागल कुत्ता
"इत्ता भात भर दिया है मेरी थाली में !!! जानवर समझ रखा
है |” कहते कहते कुशल बाबू ने थाली जमीन पर पटक दी | थाली में मौजूद दाल, सब्जी और
चावल पूरे फ़र्श पर छितरा गये थे | कुशल बाबू गुस्से से तमतमाते अपनी कोठरी में घुस
गये |
इधर कमली बहू का चीखना शुरू हो गया
| ‘बुड्ढा, नासपीटा फिर सारा खाना ख़राब कर दिया | कंगाली में आटा गीला कर रखा है
बुढ़वे ने | हाय मैं क्या करूं ?’ कमली बहू माथा पकड़ फ़र्श पर ही लुढ़क गयी | कुशल
बाबू अपनी कोठरिया से ही राग छेड़े थे ‘खाना खिला खिला के मार देना चाहते हो मुझे |
इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ने वाला मैं |’
by: श्रेया |
‘चुप कर छोरे, जिस अन्न की बात कर
रहा है वो मेरे गाँव से आता है | मैं चाहे जो करूं | बहू को इतना नहीं मालूम कि
मैं कितना खाना खाता हूँ ? बस ठूंस दी पूरी थाली | मेरी शिकायत करती है | निर्लज्ज
कहीं की |’ बाबू जी की फैली आंखे देख सुरेश चुप कर गया |
कमली बहू तड़के ही उठ जाती | बाबू
जी के नित्य कर्म के लिये जाते ही उनकी कोठरी में झाड़ू पोंछा लगा देती थी | वो
कितना भी साफ़ कर ले लेकिन उनकी कोठरी हमेशा गंदगी और बदबू से भरी रहती | जगह जगह
तम्बाकू थूकते, पान के पीक से फ़र्श क्या दीवारें तक लाल हो चुकी थीं | हद तो होती
थी जब जुकाम होने पर नाक भी उसी कोठरी में छिड़क देते थे | समझाने पर और गन्दा कर
देते थे | कुशल बाबू ने सब का जीना हराम कर रखा था |
नजदीक के ही सरकारी स्कूल से
प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत कुशल बाबू की एक समय सब लोग बहुत इज्जत किया करते
थे | जिधर से गुजरते उनके चरण छूने वालों की लाइन लग जाती थी | बच्चे क्या बड़े
क्या | उनके पढ़ाये बच्चे ऊँचे ऊँचे सरकारी पदों पर नौकरी कर रहे थे | सब बड़ा
सम्मान करते थे |
लेकिन समय के साथ सब बदल गया |
सबसे ज्यादा बदल गये कुशल बाबू | रिटायर होने के बाद वो चिड़चिड़े हो गये | जो समय
के साथ बढ़ता गया | अपनी पत्नी के देहान्त के बाद तो बेचारे पागल से हो गये | कभी
आसपास की चौपालों की शान कहे जाने वाले कुशल बाबू से लोग कटने से लगे | बच्चे तो
सहम जाते थे | न जाने कब किसको चिल्लाने लगे | कई बार तो उन पर अपनी लाठी भी घुमा
देते थे |
अब उनका जीवन घर की कोठरी में कैद
होकर रह गया था | बस जरुरी काम से ही बाहर निकलते और फिर अन्दर घुस जाते | उनका
बेटा, बहू या फिर पोता भी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते |
‘बाबू जी, लो चाय |’ सुरेश बाबूजी
की कोठरी में दाखिल होते हुए बोले | बाबूजी ने चारपाई से उठते हुए सुरेश के हाथों
को ऐसा झटका मारा कि पूरी चाय सुरेश की हथेलियों में समा गयी | चीनीमिट्टी का कप
टुकड़े टुकड़े होकर फ़र्श पर पड़ा अपना अस्तित्व खोजने लगा | मारे जलन के सुरेश बिना
कुछ बोले हथेलियाँ दबाता हैण्डपम्प की ओर
भाग गया | उसे समझ में नहीं आया कि आखिर गलती कहाँ हुई |
कप के टुकड़े बीनने जैसे ही वापस
लौटा बाबूजी फूट पड़े ‘ये टाइम है चाय का ? भरी दुपहरिया में कोई चाय पीता है भला |
भूख प्यास से आंतें कल्ला रहीं हैं और पूरा घर सोया पड़ा है...’ सुरेश ने चुपचाप एक
नजर बाबूजी के चेहरे पर डाली...सुर्ख लाल, भौहें तनी हुईं, कान खड़े, ऑंखें भिंची
हुईं...गुस्से से चेहरा और भारी व बड़ा लग रहा था | सुरेश जानता था कि इस समय
उन्हें कुछ भी कहना आग में घी डालने जैसा है सो वह
टुकड़े बीनकर बिना कुछ बोले वहां से बाहर चला गया लेकिन बाबूजी का चिल्लाना अनवरत
जारी रहा |
भोर से रात हो गयी लेकिन बाबूजी ने
न कुछ खाया न पिया | ऐसे ही अपनी कोठरी में बंद पड़े रहे | शाम को सुरेश खुद तो
नहीं गये लेकिन बेटे को बाबूजी के पास भेजा इस मंशा से कि शायद अपने पोते की ही
बात मान लें | लेकिन बाबूजी टस से मस न हुए |
‘बाबूजी, हमसे गलती हो गयी | आगे
से ऐसा नहीं होगा | चलिये, खाना खा लीजिये |’ रात में सोने से पहले सुरेश ने
बाबूजी को मनाने की आखिरी व नाकामयाब कोशिश की थी |
उदास क़दमों से सुरेश अपने कमरे में
घुसते ही कुर्सी पर निढाल होकर पसर गया | ऑंखें बंद कर ली उसने | ऑंखें बंद होते
ही आंसुओं की गर्म धारा बह निकली | यह धारा उसे यादों के गलियारे में धकेल ले गयी
| बाबूजी को कितना पसंद था मछली खाना | बाबूजी हर इतवार मछली लाया करते थे | सुरेश
बचपन में मछली नहीं खा पाते थे | उसे कांटे बिलकुल पसंद नहीं थे | बाबूजी उसे अपनी
गोद में बैठाकर कांटे निकाल निकाल कर अपने हाथों से मछली खिलाया करते थे |
जब कभी किसी बात पर वह रूठ जाया
करता बाबूजी तमाम जतन करते थे उसे मनाने के लिये | बिना मनाये चैन नहीं लेते थे | ‘मुझे
साइकिल चाहिए चाहिए चाहिए!!!’ कैसे उसने एक दिन बाजार में ही ज़िद पकड़ ली थी |
बाबूजी ने तब दुकानदार से उधार में साइकिल लेकर उसे दी थी |
कूलर से आती गर्म हवा उसे वर्तमान
में ले आयी | कूलर में पानी भरने के लिये जाते समय वह सोच रहा था कि आखिर बाबूजी को
कैसे मनाया जाये ? क्या मछली ??? मछली तो उन्हें आज भी सबसे ज्यादा पसंद है | हां,
कल सुबह ही वह मछली बनवायेगा | बाबूजी बिना खाये नहीं रह पाएंगे |
अलसुबह ही सुरेश बाजार से मछली
खरीद लाये थे | कमली बहू को पकड़ाते हुए बोले थे ‘जरा मसालेदार और फटाफट बनाना |’
कमली जानती थी सुरेश अपने बाबूजी का कितना ख्याल रखते थे | शायद सुरेश और बाबूजी
ने अपने अपने किरदार बदल लिये थे |
कमली बहू सारे काम छोड़ मछली बनाने
में जुट गयी | उसने पूरा ख्याल रखा कि मछली बाबूजी की पसंद की बने | ‘बाबूजी मछली
बनाई है | खा लो |’ गर्मागर्म खाना बाबूजी के स्टूल पर रखते हुए कमली बहू दबी
जुबान बोली | ठंढी मछली और ऊँची आवाज बाबूजी को कतई नापसंद थी | खाना रखकर वह बाहर
चली आयी |
‘देखूं बाबूजी ने खाना खाया या
नहीं |’ बेचारे सुरेश चुपके से कोठरी के दरवाजे से झांके | ‘वाह! बाबूजी तो बड़े
चाव से खा रहे हैं |’ चहकते हुए सुरेश बहू से बोले ‘दो चार रोटी और रख दो, दो दिन
की भूख है ज्यादा खायेंगे |’ उनके चेहरे की चमक देख लगा गोया कोई किला फतह कर लिया
हो |
राहत की साँस लेते हुए उसने कमली
बहू को समझाने की गरज से कहा ‘देखो, अब हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे
बाबूजी नाराज हो जाएँ | इस उम्र में ये सब ठीक नहीं |’ ‘हम्म’ कमली बहू ने सर हिला
दिया था |
‘अम्मा, देखो न ये टॉमी कितना
प्यारा है | मुझे भी ऐसा टॉमी चाहिए | दिला दो न अम्मा |’ कमली बहू ने अपने बेटे
राजू को डांट लगा कर चुप करा दिया था | शाम को जैसे ही सुरेश दफ्तर से लौटे राजू
उनसे लिपट गया ‘पापा, मुझे वो वाला टॉमी चाहिये |’ ‘लेकिन बेटा...’ सुरेश आगे बोल
पाते इससे पहले ही राजू ठिनठिनाने लगा ‘मुझे टॉमी चाहिये चाहिये चाहिये |’ सुरेश
को एकबारगी अपने बचपन में साइकिल वाली ज़िद याद आ गयी |
जब सुरेश छोटा था तब भी घर में एक
कुत्ता रहता था | उसे कुत्ते से खास लगाव न था हां बाबूजी अक्सर उसे दुलराते,
पुचकारते रहते थे | सुरेश ने सोचा टॉमी को ले लिया जाये, राजू के साथ बाबूजी का भी
मन लगा रहेगा | कुत्ते के मालिक से बात करके छोटे से पप्पी को सुरेश घर ले आये |
सुरेश ने राजू की ज़िद पूरी कर दी
जैसे कभी उनकी ज़िद बाबूजी पूरी किया करते थे | सुरेश को अच्छा लगा था |
दफ्तर से वापस आकर घर के आँगन में
आते ही सुरेश की आँखों की पुतलियाँ अचरज भरी खुशी से फैल गयीं | वो जो देख रहा था
सच था क्या ??? बाबूजी आँगन में बैठे टॉमी के साथ मगन होकर खेल रहे थे | कभी
दुलराते कभी पुचकारते तो कभी अपनी लाठी का सिरा उसकी गर्दन में घुसाते | अरसे बाद
बाबूजी को खुश देख सुरेश ने लम्बी ठण्डी आह भरी और अंदर घुस गये |
बाबूजी टॉमी के साथ रम गये थे |
उसे खूब दुलराते, अपनी कोठरी में उसे सुलाते, जब खाना खाते उसे भी रोटी चावल खिलते
| यहाँ तक कि अपने हाथों से ही उसे नहलाते | अब यही उनकी दिनचर्या बन चुकी थी |
‘रुक तुझे अभी बताती हूँ टॉमी के
बच्चेssss’ चिल्लाते हुए कमली बहू उसके पीछे डंडा लेकर दौड़ी |
‘दूसरे के घर में पोट्टी करता है नालायक |’ गुस्से में उसने दो चार डंडे टॉमी को
जड़ दिए थे | हल्ला सुन बाहर निकले बाबूजी से ये देखा न गया और दूर से ही लाठी घुमा
दी जो ठीक कमली बहू की कलाई में लगी |
‘हाय रे ! इस बुड्ढे ने तो मेरा
हाथ ही तोड़ डाला |’ दर्द से कराहती कमली बहू दौड़ते हुए अन्दर घुस गयी | दराज से
मलहम निकाल कलाई में मल ही रही थी कि आखों के कोरों से झरझरा कर गिरे आंसुओं ने
पूरी कलाई भिगो दी | उसने दवा फेंक दी और भीगा चेहरा घुटनों में छिपा लिया | आंसुओं
की गर्मी उसे वर्तमान से बहुत पीछे धकेल ले गयी |
‘आज मुझे बेटी मिल गयी |’ कहते हुए
उसकी सास ने ससुराल में उसका स्वागत किया था | सास और ससुराल से उसे जितना डर लगता
था शायद दुनिया में किसी और चीज से नहीं | लेकिन समय के साथ उसका डर काफूर हो गया
| शादी के बाद भी उसे मायके और ससुराल में कोई अंतर नहीं लगा | हां बचपन से ही माँ
के प्यार के लिये तड़पती कमली बहू को माँ जरुर मिल गयी | ‘अगर मेरी माँ होती तो तुम
जैसी ही होती ! है न माँ |’ अपनी सास से अक्सर वो कहती | जन्म देते ही माँ चल बसी
थी कमली बहू की | उसकी सास बिलकुल अपने बेटी की तरह चाहती थी उसे | कभी कोई कमी
नहीं होने दी | जब एक बार उसे चार दिन लगातार बुखार आया था उन्होंने रात रात भर
जाग कर गीली पट्टियां की थी |
लेकिन ऊपर वाले से भी किसी की ख़ुशी
ज्यादा दिन देखी नहीं जाती | अचानक एक दिन तबियत ख़राब हुई और माँ चल बसीं | एक बार
फिर उसकी माँ छीन ली गयी | फूट फूट कर रोई थी कमली | खुद को कमरे में बंद कर लिया
| हफ्ता भर अन्न के एक दाना भी न खाया | बाबूजी और सुरेश ने उसे बहुत समझाया |
‘बिटिया, अपने बाबूजी का ध्यान
रखना | कोई कमी मत होने देना |’ मेरी कलाई थाम मेरी हामी मांगते हुए मेरी सास
न..मेरी माँ के ये आखिरी बोल थे | आंसुओं से भरी आँखों को भींचते हुए मैंने सिर
हिला दिया | शायद मेरी हामी ने उनके दिल को इतना सुकून पहुँचाया कि वो चिरनिद्रा
में लीन हो गयीं |
कमली बहू ने माँ की बात का पूरा
मान रखा था | गुस्से में भले ही उल्टा सीधा बक देती थी लेकिन ख्याल पूरा रखती थी |
‘अम्मा...अम्मा...’ राजू स्कूल से
आ गया था | उसकी आवाज ने कमली बहू को जगा सा दिया | गालों में चिपके सूखे आंसुओं
को धोकर राजू को खाना देने में लग गयी |
‘राजू के पापा जल्दी घर आ जाओ |
राजू को टॉमी ने काट लिया है...’ हांफते हांफते कमली बहू ने सुरेश को फोन किया | सुरेश
अपना सारा काम छोड़ कर भागे | स्कूटर चालू हालत में घर के दरवाजे पर खड़ा कर अन्दर
घुसे | राजू के दाहिने पैर पर टॉमी ने अपने नुकीले दांत गड़ाये थे | खून अभी भी रिस
रहा था | आनन फानन स्कूटर में बैठाकर
डॉक्टर के पास ले गये |
‘कहाँ मर गया ये कुत्ता???’ वापस
आकर राजू को गाड़ी से उतार सुरेश ने चीखते हुए पुछा | कोई प्रत्युत्त्तर न पाकर
सुरेश उसी हालत में तेज क़दमों से बाहर चले गये | ‘आज उसे मारकर ही दम लूँगाssssss’ सुरेश का गुस्सा चरम पर था |
शाम के सात बज रहे थे | गर्मी के
दिन थे इसलिए अभी भी हल्का उजाला था | कमीज बाहर, बाल उलझे, चेहरा छितराया, हाँथ
में डंडा लिये सुरेश घर में दाखिल हुए | पूरे चार घंटे हो गये थे | न सुरेश का पता
था न टॉमी का | कमली ने उसके आने पर राहत की सांस ली लेकिन उनकी हालत देख किसी
अनहोनी की आशंका से कलेजा थाम लिया |
‘तू तो आ गया लेकिन मेरा टॉमी कहाँ
है ??? नालायक, जल्दी बोल कहाँ है मेरा टॉमी | और तेरे हाथ में ये डंडा क्या कर
रहा है |’ बाबूजी ने जमीन पर लाठी पटकते हुए सवाल किया | सुरेश अपराधी की भांति
जड़वत खड़ा रहा | ‘बोल हरामखोर !!!’ इस बार बाबूजी की लाठी सीधे सुरेश की बायीं टांग
पर लगी |
‘मार दिया मैंने उसे...’ सुरेश
दर्द से चीखते हुए बोला | बाबूजी सन्न रह गये | चेहरा फक पड़ गया | कमली बहू और
राजू कभी सुरेश को तो कभी बाबूजी की ओर ताकते | कमली बहू की धुकधुकी बढ़ गयी | ‘तूने
मेरे टॉमी को मार डाला!!! अरे पापी...’ और इसके बाद बाबूजी ने कई लाठियां सुरेश के
शरीर पर भांज दी | जड़वत खड़ा सुरेश गुस्से से फट पड़ा ‘बाबूजी, जब कुत्ता अपने मालिक
को काटने लगे तो उसे मार दिया जाता है |
और हां, तुम भी पगला गये हो...’
“क्या कहा तूने???’ इस बार बाबूजी
की आवाज कुछ धीमी थी | लाठी हाथ में समेट धीमें क़दमों से कोठरी में घुस गये |
अचानक बाबूजी को ये क्या हो गया न तो कमली बहू समझ पायी न ही सुरेश | सुरेश दर्द
से कराहते अन्दर चले गये | कमली बहू भी उनके पीछे हो ली |
आज घर में खाना नहीं बना | सुरेश
पलंग में अधलेटे ही सो गये, राजू भी सो गया था, कमली बहू कुछ काम समेटने में लगी
थी | बाबूजी तब से कोठरी के बाहर नहीं निकले थे | उनका अचानक से चुप हो जाना सब को
थोड़ा अजीब लगा | बहू ने कोठरी के दरवाजे पर कान लगा कर टोह लेनी चाही...चिल्ला तो
नहीं रहे थे लेकिन लगातार कुछ बुदबुदाये जा रहे थे | कुछ आश्वस्त होकर वह भी सोने
चली गयी |
घड़ी रात के लगभग दस बजा रही थी |
अचानक कोठरी से जोर जोर से आवाजें आने लगी...’मैं भी पागल कुत्ता हूँ, तुम सब को
काटता हूँ, मुझे भी मार डालो...मैं भी पागल कुत्ता हूँ...’ आवाज इतनी तेज थी कि
हड़बड़ा कर सुरेश और बहू उठ बैठे | दोनों कोठरी की तरफ भागे | दरवाजा भिड़ा था |
सुरेश ने खिड़की से झाँक कर देखा | बाबूजी दीवार पर सर भिड़ाये खड़े थे | चिल्लाते
चिल्लाते कई बार सर भी दीवार पर दे मारते |
सुरेश ने अन्दर जाने के लिये जैसे
ही हाथ दरवाजे की तरफ बढ़ाया बहू ने उसे रोक दिया | वो जानती थी इस समय बाबूजी को
समझाया नहीं जा सकता | समझेंगे तो नहीं उल्टा और भड़क जायेंगे | थोड़ी देर खड़े रहने
के बाद दोनों उदास क़दमों से अपने कमरे में लौट आये |
सुरेश को आत्मग्लानि हो रही थी | क्या
हो गया था उसे? क्यों बाबूजी पर चिल्लाया था? बाबूजी को प्यार से भी तो समझा सकता
था | कोठरी से अब भी बाबूजी के चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं | चारपायी पटकने,
दरवाजा भड़भड़ाने, लाठी फेंकनें की आवाजों से पूरा घर थर्रा रहा था | बाबूजी का ऐसा
गुस्सा इस घर ने कभी नहीं देखा था | देर रात तक उनकी चीख चिल्लाहट सुरेश और बहू के
ह्रदय को छीलती रही | ‘सुबह पैरों पर गिर माफ़ी मांग लूँगा’ सुरेश ने मन मन सोचा |
दूसरी तरफ कमली सोच रही थी ‘कल मछली बनाउंगी शायद बाबूजी मान जाएँ |’ बेचारे दोनों
यही सोचते सोचते सो गये |
गर्मी का सूरज ऊपर चढ़ कर तपने लगा
था | रात देर से सोये सुरेश और कमली बहू की थकी ऑंखें तपन से जाग उठीं | उठते ही
सुरेश को बाबूजी का ख्याल आया | भाग कर बाहर आये | कोठरी का किवाड़ अभी भी भिड़ा था
| बाबूजी इतनी देर तक तो कभी नहीं सोते | सुरेश ने हलके हाथों से किवाड़ को धक्का
दिया | दरवाजा खुल गया | अन्दर का दृश्य देख सुरेश सन्न रह गया... बाबूजी चारपाई
पर लुढके पड़े थे | एक टांग, हाथ व सिर चारपाई के बाहर लटक रहे थे | खुली आँखों में
चश्मा टंगा था...लाठी कोने में पड़ी थी...स्टूल उल्टा पड़ा था...
दरवाजे से चारपाई तक चार कदम का
फासला तय करने में सुरेश गिर पड़े...नाक की सीध में ऊँगली लगाई और दहाड़ मार कर रो
पड़े | कमली बहू पछाड़ खाकर दरवाजे पर ही गिर पड़ी | राजू माँ का पल्लू थामे खड़ा था |
‘मैं भी पागल कुत्ता हूँ... मैं भी पागल कुत्ता हूँ...’ कांपते हाथों से बाबूजी के शरीर को जमीन पर रखते हुए
सुरेश के कानों में बाबूजी के यही आखिरी शब्द गूँज रहे थे |
Story
by: Nitendra Verma
Date: May
06, 2016 Friday
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bahut achha likha hai. kahani b achhi lagi. best of luck!!
ReplyDeleteNice story...Reetesh Patel
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis story connects the dots of lives of every indian house
ReplyDeleteThanks a lot Shubham ji🙏🙏
DeleteNice story
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