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Friday, May 15, 2015

"खयाली पुलाव" - ढक्कन

ढक्कन

अस्पताल के ओ पी डी हॉल में बैठा मैं डॉक्टर का इंतज़ार कर रहा था | उसी अहाते में जमा भीड़ में एक बुजुर्ग अपनी चद्दर बिछाये फ़र्श पर बैठा था | कुर्ता पायजामा पहने , बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी, लम्बे खड़े बाल गोया हफ़्तों से नहाया न हो | हर आने जाने वाले को डरावनी आँखों से घूर रहा था | इसी बीच उस बुजुर्ग को कोई टिफिन पकड़ा गया | तुरंत बुढ्ढे ने टिफिन पे झपट्टा मारा | झटपट अख़बार बिछाया और टिफिन खोल दिया | भूख से तिलमिलाए बुढ्ढे ने ऊपर वाला डब्बा जिसमे ढक्कन लगा रहता है उसे खोलने में समय नष्ट नहीं किया | बाकी दो डब्बे खुल चुके थे |
एक डब्बे में चावल तो दूसरे में सूखी सब्जी और रोटियां थीं | जितनी तेजी से उसने टिफिन खोला था उससे ज्यादा फुर्ती में सब्जी रोटी उसके पेट में चली गयीं | अब उसकी नजर गयी ढक्कन लगे डब्बे पर | उसने डब्बे को हाथ में लिया | ढक्कन को खोलने की कोशिश की | ढक्कन नहीं खुला | दुबारा में उसने ज्यादा ताकत लगाई लेकिन वो भी बेकार | अब उसने अपने कुर्ते की जेब से एक बड़ा सा रूमाल निकाला और उसकी मदद से ढक्कन खोलने की कोशिश की | लेकिन ढक्कन था कि टस से मस होने को तैयार ही नहीं था | ढक्कन अभी भी यथा स्थान लगा बुढ्ढे को चिढ़ा रहा था | ढक्कन की इस गुस्ताखी को देख बुढ्ढे का गुस्सा बढ़ चुका था |
उसने ढक्कन को सबक सिखाने की ठान ली थी | ढक्कन के अलावा कोई और उस पर तो नहीं हँस रहा है ये देखने के लिये उसने इधर उधर नजरें घुमायीं | सब अपने अपने काम में व्यस्त थे | हालाँकि ढक्कन खोलने की उसकी इस जद्दोजहद को मेरे अलावा कई और लोग भी तिरछी नजरों से देख रहे थे | कुछ संतुष्ट हो जाने के बाद वह फिर अपने काम में लग गया | अब वो बेचारा डब्बा बुड्ढे के पैर के तलवों के बीच फंसा तड़प रहा था | इस तरीके से उसने दोनों हाथों का बूत लगाकर ढक्कन को मजा चखाना चाहा लेकिन वो तो टस से मस भी नहीं हुआ | अब तक बुड्ढे ने इतनी ताकत लगा डाली थी कि शरीर कांपने लगा था | चेहरा लाल हो चुका था |
थोड़ा सुस्ता लेने के बाद उसने अपने कुर्ते के अन्दर बंधे धागे में लगी चाभी बाहर निकाली | लेकिन ढक्कन उस चाभी को खांचे में रुकने ही नहीं दे रहा था | बार बार वो फिसल जाती थी | एक दो बार तो हाथ में भी लगी | ये प्रयास भी बेकार | अब तक के बुड्ढे के सारे जतन व्यर्थ ही रहे थे | अब उसकी नजर टिफ़िन के हैंडल पर पड़ी | उसने हैंडल के एक हिस्से को ढक्कन के सांचे में लगा कर दम लगाया | ढक्कन तो खुला नहीं हैंडल से सटे रखे एक डब्बे के चावल जरुर बाहर गिर गये | बुड्ढे ने झट से गिरे चावलों को अपनी जगह वापिस पहुंचा दिया | और फिर से कोशिश में लग गया |
डॉक्टर आ चुके थे | पहला ही नंबर था मेरा | मैं अन्दर घुस गया | डॉक्टर के केबिन से बाहर निकलते ही मेरी नजर उस बुड्ढे पर गई | आखिरकार ढक्कन खुल चुका था | बुड्ढे की मेहनत सफल रही | उसकी ज़िद ने ढक्कन को समर्पण करने को मजबूर कर दिया |

Khayali Pulao By : Nitendra Verma                Date: May 14, 2015 Thursday



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